Monday, April 18, 2011

प्रसन्न चिड़िया

नन्हे चपल पंखों से                        
दूर तक उडान भर 
लाई वो तिनकों को 
पल पल चुन चुन कर 
         दूर खड़ा क्षितिज उसे 
          निहारता चला गया 
           तिनके पर तिनका बुन 
          घोंसला बनता रहा 
कोमल शुष्क श्वेत  पंखों से 
नर्म सा बिस्तर सिया  
और फिर उपयुक्त क्षण में 
गोल सा अंडा दिया  
            देखते ही देखते बस 
            रंग लाया श्रम बड़ा 
            एक नन्हा सा विहग अब 
             था बिछोने पर पड़ा 
गर्व करती थी स्वयं पर 
देखकर अपनी विजय को   
चोंच भरभर के वो खाना 
तृप्त करती निज शिशु को 
                समय आया पंख उपजे 
                 और वह शिशु उड़ चला 
                 देखकर अपनी सफलता 
                 युवा माँ का दिल खिला 
समय आया पुन: उसने 
एक फिर अंडा जना 
मानो सुन्दर सीप में इक 
बड़ा सा मोती बना 
                फिर से मेहनत रंग लाई
                  फिर हुआ वह शिशु बड़ा 
                  और पंखों को पसारे
                  दूर तक वह भी उड़ा
मुग्ध हो कर माँ ने अपने 
पंख भी फेला दिए
यों लगा ज्यों मन में उपवन 
खिल रहें हों नित नए 
                      साथ बच्चों के वो अपने 
                       विचरती नभ में रही 
                        हो गए फिर शिथिल जब पर 
                         बैठ कोटर में गई
अब वहीँ से निरख उनको 
वह अतीव प्रसन्न है 
देख बच्चों  की उडाने
हर्ष रस में निमग्न है 

                   

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