Tuesday, April 26, 2011

मानो या न मानो

मेरे दादाजी गाँव के माने हुए वैद्य थे . दूर दूर से लोग उनके पास इलाज़ के लिए आते थे . उन्होंने अगर किसी बीमार  की नब्ज़ पकड़ ली तो लोगों को विश्वास हो जाता था कि वह जरूर स्वस्थ हो जाएगा . कितने ही लाइलाज़ बीमारियों से ग्रसित लोग उनके हाथ से ठीक हुए . उन्हें रूपये पैसों का लोभ कतई नहीं था . इलाज़ के बाद जितने रूपये किसी ने दिए; वही ठीक थे . वे कुछ कहते नहीं थे . एक बार एक बहुत बड़े सेठ का बेटा बीमार पड़ गया . उसने दादाजी को अपने घर बुलवाया . उसने दादाजी को कहा कि वो कितना भी रुपया लें ; पर उनके बच्चे को ठीक कर दें . दादाजी ने बच्चे की नब्ज़ देखी और उपचार प्रारंभ कर दिया . थोडा समय लगा; परन्तु बच्चा पूरी तरह स्वस्थ हो गया . सेठ दादाजी के पास आया . उसने दादाजी को बच्चे के उपचार के पारिश्रमिक के तौर पर कुछ स्वल्प सा धन देना चाहा . कोई साधारण व्यक्ति होता तो दादाजी कुछ भी न कहते . लेकिन इतने बड़े सेठ के बच्चे की लाइलाज़ बीमारी का बहुत घटिया सा प्रतिफल उन्हें स्वीकार नहीं हुआ . इसमें उन्हें अपमान का अनुभव हुआ . वे ख़ुद्दार बहुत थे . मजाल है, कोई उनसे ऐसा वैसा शब्द बोल  भी जाए!  ऐसे हाज़िर   जवाब थे कि जवाब सुनते ही सामने वाला खिसिया जाता था . तो सेठ को उन्होंने बड़े गंभीर अंदाज़ में कहा ,"लाला! तुम्हारा बेटा बिलकुल स्वस्थ हो गया है . मेरे लिए तो यही बहुत है . ये रूपये किसी ज़रुरतमंद को दान कर देना . भगवान तुम्हारा भला करे ." सेठ के और अधिक रूपये पेश करने पर भी उन्होंने स्वीकार नहीं किए,और सेठ शर्मिंदा होकर वापिस चला गया .
                                                   एक बार ऐसा हुआ कि मेरे ताऊजी  बहुत बीमार पड़ गए . उनकी उम्र बहुत छोटी रही होगी . शायद  नौ या दस साल की.  दादाजी के हाथों में वो शफ़ा थी कि भयंकर से भयंकर बीमारी की पकड़ रखते थे . उन्होंने ताऊजी  का उपचार प्रारंभ किया . पर बुखार तो उतरता ही न था . सभी तरह की दवाईयाँ आजमां चुके थे . बुखार को एक महीने से भी अधिक हो गया था . बुखार उतरने का नाम ही न लेता था . ताऊजी   की भूख भी खत्म हो गई  थी . दादी बहुत चिंतित थी . वह दादाजी से बोली कि उन्होंने कितने मरीज़ ठीक किए , अब अपने बेटे को जल्दी से ठीक क्यों नहीं करते . 
                                                    दादाजी भी कम परेशान थोड़े ही थे . वे मन ही मन कह रहे थे ,"हे भगवान! यह कैसी परीक्षा ले रहा है ? मेरे बेटे का बुखार क्यों नहीं उतर रहा ? ये कुछ नहीं खाएगा तो जीएगा कैसे ?" दादाजी हुक्का पीते थे . रात का समय था . ताऊजी  बिछौने पर सो रहे थे . दादाजी को नींद नहीं आ रही थी . उन्होंने सामने हुक्का रखा और पीने लगे . वे शिवजी के उपासक थे . अत:  मन ही मन शिवजी का ध्यान बड़े मनोयोग से करने लगे . अचानक आधी रात के समय शिव और पार्वती आए. शिवजी ताउजी के बिछौने के पास गए . अपना हाथ आगे बढाकर उन्होंने ताऊजी  के पूरे शरीर पर ऊपर से नीचे तक फेरा . फिर वे दोनों चले गए . 

                                                   सवेरा हुआ . ताऊजी  नींद से उठे और उठते ही बोले ,"माँ! भूख लगी है . रोटी दे दो ." दादी विस्मय भरी प्रसन्नता से ताउजी को देखने लगी . दादाजी से बोली ,"देखो ये रोटी मांग रहा है !" दादाजी भी हैरान हुए. उन्होंने ताऊजी का माथा छुआ. बुखार नदारद था . उन्हें रात की घटना याद आई . उन्होंने दादी को भी बताया . वे भी अचरज में पड़ गई . पर भगवान में उनका विश्वास और पक्का हो गया . उसके बाद ताऊजी  छुटपन में तो कभी बीमार ही नहीं पड़े . उनकी मृत्यु के समय भी उनकी उम्र लगभग सत्तर वर्ष तो होगी ही . मानो या न मानो ; यह बिलकुल सच्ची घटना है .
                                        

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