Monday, May 2, 2011

भीलनी के बेर

मेरी नानी छ: महीने रानीगंज रहती थी और छ: महीने झज्झर. रानीगंज से पहले रेलगाड़ी से वे दिल्ली आती थी . बाद में दिल्ली से झज्झर जाती थी . रानीगंज से दिल्ली आते समय वे दूध से गुंधे आटे के परांठों के साथ करेले की सब्जी और आम का खट्टा मीठा  अचार रखकर लाती थी . अक्सर दिल्ली आते तक भी वह खाना बचा हुआ होता था . नानी और नानाजी दिल्ली में हमारे घर ही ठहरते थे . इसलिए मुझे उस खाने के भरपूर मज़े आते थे . 
                                      हमारे घर तीन चार दिन ठहरने के बाद नानी झज्झर के लिए रवाना होती . उन तीन चार दिनों में मेरे तो बहुत मज़े होते थे . माँ और बाउजी की डांट तो उन दिनों में पड़ती ही नहीं थी बल्कि नानी का भरपूर प्यार मिलता था . झज्झर जाते समय नानी मेरी माँ को भी अपने साथ ले कर जाती थी . तब मैं भी माँ के साथ जाया करती थी . एक बार ऐसा संयोग हुआ कि उन दिनों मेरी दशहरे की छुट्टियाँ थी . 
                                            नानी के घर हम पहुंचे तो पाया कि कमरों में बहुत धूल इकट्ठी हो गई है . नानाजी एक मजदूर को लेकर आये और पूरा घर साफ़ करवाया . तब तक हमने माँ कि चाची के घर आराम किया जो कि उसी हवेली में था . झज्झर में नानी का घर एक बड़ी सी हवेली में था . उस बड़ी हवेली के बिलकुल बाहर एक बड़ा सा दरवाज़ा था . इतना बड़ा जैसे कि पुराने दर्शनीय स्थलों का होता है . घुसते ही एक बहुत बड़ी बैठक थी . फिर अंदर घुसने पर एक बहुत बड़ा आँगन था . उस आँगन के चारों ओर बहुत सारे कमरे और रसोईघर थे . नीचे के दो कमरे एक रसोईघर और ऊपर के दो कमरे मेरे नानाजी के थे . यह हवेली नानाजी के दादाजी ने बनवाई थी . बाकी हवेली में नानाजी के अन्य भाई व् उनके परिवार वाले रहते थे . 
                                                   रात होने को आई थी इसलिए हमने खाना भी माँ कि चाची के यहाँ खाया . अगले दिन जब मैं सो कर उठी तो नानी ने बताया कि पुष्पा भी आने वाली है . पुष्पा मेरी मौसी की बेटी का नाम है . वह मुझसे डेढ़ साल बड़ी है . नानी मेरे सामने दो डिब्बियां लायी . वह बोली ,"देख बेटा ! एक डिब्बी में किशमिश हैं और दूसरी में काजू . तू इसमें से कोई एक ले ले . दूसरी पुष्पा को दे दूँगी." मुझे किशमिश बहुत अच्छी लगती हैं . लेना तो मैं वही डिब्बी चाहती थी ;परन्तु काजू वाली डिब्बी बड़ी थी . इस बात का भी तो लालच आरहा था . तो  मैंने काजू वाली ही डिब्बी लेने का निश्चय किया
                                                      पुष्पा आती तो मेरे बहुत मज़े होते . सारा काम वो करती . और मैं छोटी होने का लाभ उठाती हुई पूरी मौज करती . वह भी मेरे बहुत लाड करती थी . सवेरे सवेरे सब कूँए से पानी भरने जाते थे . सबके सर पर पीतल की बड़ी बड़ी टोकनी होती थी . हाथ में एक मोटी रस्सी और बाल्टी भी होती थी . मोटी रस्सी को सब नेजू कहते थे . पुष्पा तो सिर पर टोकनी ही रखती थी ,परन्तु प्यार से मुझे छोटी सी टोकनी देती थी . उस छोटी टोकनी को बंटा कहते थे . मैं उसको भरकर लाती थी . कई स्त्रियाँ टोकनी के ऊपर बंटा भी रख लेती थी. वहां एक बहुत मशहूर लोक गीत भी है ,"मेरे सिर पर बंटा टोकनी , मेरे हाथ में नेजू डोल ; मैं पतली सी कामिनी." कूंए के अंदर रस्सी के सहारे डोल डालकर सभी पानी निकालते और अपनी टोकनी भर कर ले जाते . मैंने भी एक दिन कुंए में डोल डाला और रस्सी की सहायता से ऊपर खींचा . पर वह तो खाली ही था . तब पुष्पा ने मुझे सिखाया कि डोल को नीचे छोड़कर कुंए के पानी में एक दो बार डुबकी लगवानी पड़ती हैं  तब डोल में पानी भरता है .
                                            पानी लाने के बाद हम सब अंदर कमरे में नानाजी के पास बैठ जाते थे . वो तब तक नानाजी नहा धोकर भजन कर चुकते थे . नानाजी कमरे में स्टोव जलाकर  चाय बनाते थे . झज्झर में चाय कोई नहीं पीता था . वहां पर या तो दूध पीते थे या छाछ . नानाजी को चाय का शौक रानीगंज से लगा था . और झज्झर में स्टोव भी कोई नहीं जलाता था . वहां तो बस चूल्हा ही जलता था . तो यह सब वहां के लोगों के लिए नई बात होती थी . नानी पीतल के गिलास कटोरियाँ कमरे में ही ले आती थी . चीनी मिटटी के बर्तन अशुद्ध समझे जाते थे इसलिए पीतल के गिलास कटोरियों में चाय पीते थे . नानाजी छोटे गिलास में चाय पीते और मुझे और पुष्पा को  कटोरियों में चाय देते  . हम दोनों पीतल की बड़ी चम्मच से चाय पीते . कभी कभी हवेली में से कोई कोई मामा भी हमारे साथ चाय पीया करते . नानी चाय नहीं पीती थी .
                                                       नानी तो दही बिलोकर मक्खन निकालती . रात की नमकीन बासी रोटी पर मक्खन रखकर मुझे देती . वाह! क्या आनंद आता था उस रोटी मक्खन में . सच बताऊँ तो वह ज़ायका बढ़िया से बढ़िया पकवान में भी होना नामुमकिन है . एक दिन तो मैं आँगन में खड़ी होकर रोटी और मक्खन खा रही थी ,कि एक कौवा ऊपर से अचानक  आकर मेरे हाथ की रोटी छीन ले गया . मैं एकदम डर गयी और रोने लगी . पुष्पा ने मुझे चुप कराया और नानी से एक और रोटी लाकर मुझे दी . अब याद करती हूँ तो सूरदास जी की मशहूर पंक्तियाँ याद आ जाती हैं ,"काग के भाग बड़े सजनी ,हरी हाथ सों ले गयो माखन रोटी."
सोचती हूँ कहीं वही कौवा तो रोटी नहीं छीन ले गया था ?
                                                    नानी चूल्हे पर खाना बनाती तो बाद में चूल्हे में ढेर सी मुलायम राख़ होती . सबके खाना खाने के बाद मैं और पुष्पा रसोईघर के बाहर बैठकर बर्तन साफ़ करते . ढेर सारी सूखी राख़ में पुष्पा पीतल के बर्तनों को रगड़ -रगड़ कर मांजती और मैं एक सूखा कपडा लेकर उन्हें अच्छी तरह पोंछती ताकि सारी राख़ उतर जाए . नानी के यहाँ पानी से मंजे बर्तन अशुद्ध माने जाते थे . पड़ोस की मामी अपने रसोईघर के बाहर बर्तन मांजने बैठ जाती थी . इतनी बड़ी हवेली के आँगन मैं इधर हम और उधर मामी ! तब मामी  और पुष्पा का मुकाबला रहता कि कौन अधिक चमकदार बर्तन मांजता है . मैं उनकी मीठी नोक झोंक का पूरा लुत्फ़ उठाती .
                                     दोपहर के बाद  जब थोडा दिन ढलता तो सभी स्त्रियाँ और बच्चे आँगन में आ जाते  . स्त्रियाँ पीढों पर बैठकर अपने घर के काम करती . कोई गेंहू बीनती ,कोई चरखा कातती तो कोई साड़ियों पर  सुंदर बूंटे काढती . आँगन में एक बहुत बड़ा ऊखल और मूसल भी था . कभी कभी कोई मामी उस में बाजरा या मसाले कूटती थी . सभी स्त्रियाँ काम करते करते लोकगीत या भजन गाती थी . हम बच्चे या तो उनके काम में मदद करवाते या फिर आपस में खेलते रहते . बाद में नानी सब बच्चों को भुने हुए चने या गेंहू ,थोड़े से गुड के साथ देती थी .
                                       वहां पर बन्दर बहुत अधिक थे . इतने शरारती थे की कोई भी वस्तु उठा ले जाते थे जिससे कि बदले में उन्हें कोई खाने की वस्तु मिल जाए . एक बार माँ अपनी ओढ़नी पर बंधेज का काम कर रही थी . अचानक बंदर ने झपटते से वह ओढ़नी छीन ली और ऊपर जाकर बैठ गया . तब माँ एक केला लेकर ऊपर गई . केला लेकर बंदर ने माँ की ओढ़नी नीचे फ़ेंक दी . नानी ने एक बार मुझे प्रसाद देकर ऊपर मामी को देकर आने को कहा . जैसे ही मैं सीढियां चढ़कर ऊपर गयी की चार मोटे बंदरों ने मुझे घेर लिया . लगभग धक्का देते हुए वे बन्दर मुझे छज्जे की ओर ठेले जा रहे थे . तभी मामी के जाली वाले दरवाजे का एक सरिया मैंने कस के पकड़ लिया; और आवाज़ लगाई,"मामी !". मामी ने तुरन्त आकर दरवाज़ा खोला और मुझे अन्दर लिया . तब  जाकर मेरी जान में जान आई . और प्रसाद ! उसका भोग तो बन्दर पहले ही लगा चुके थे !      
                                       झज्झर में वहीँ के कुछ कलाकार शाम के पांच बजे के करीब रामलीला का आयोजन करते थे . रोज़ शाम को मैं और पुष्पा  दूसरे बच्चों के साथ रामलीला देखने जाते  थे . नानी मुझे और पुष्पा को  रोज़ पांच-पांच पैसे दिया करती थी .पुष्पा अपने पैसों की चीज़ भी मुझको ही खिला देती थी . अक्सर हम खाते थे चने की भुनी दाल के मीठे लड्डू या चने मुरमुरे या फिर नमकीन मोटी बेसन की सेवियां. उस दिन राम लीला में यह दृश्य था कि रामचन्द्र जी को लक्ष्मण के साथ वन में घूमते हुए भीलनी मिल गई और उसने राम और लक्ष्मण को बेर खिलाए. वे बेर बहुत ही आकर्षक लग रहे थे . केसर मिले हुए खोये की गोलियां बनाकर उन पर एक एक लौंग लगाकर बेर की हूबहू नक़ल की गई थी .
                                       रामलीला की समाप्ति के बाद कुछ लोगों को वे बेर बांटे गए . हमने भी वे बेर लेने चाहे . पर बड़े लोगों ने कहा की ये तुम्हारे घरों में ही पहुंचा दिए जायेंगे . हम बड़े मायूस हुए . घर आते समय पुष्पा बोली ,"नानाजी से इनकी शिकायत लगायेंगे ." घर पहुंचकर हमने नानी को सब कुछ बताया . नानी हंसकर बोली ,"चिंता न करो बेटा ! अभी थोड़ी देर में कपूरी बुआ बेर लेकर आती होगी . वो हर बार भीलनी के बेर लाती है, और हर एक घर में देकर जाती है ."  हम तब निश्चिन्त हो गए . सचमुच ही तभी कपूरी बुआ हाथ में थाल लेकर आती दिखाई दी . उन्होंने पूरी हवेली में सबके घर में भीलनी के बेर बांटे. वह मेरी नानी को भी बेर दे कर गई . नानी ने कहा ,"देखो पहुँच गए न हमारे पास बेर !" यह कहते हुए उन्होंने मेरे और पुष्पा के हाथों में बेर रख दिए . वो बेर सचमुच बहुत स्वादिष्ट थे .  



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