Thursday, June 16, 2011

गर्मी की छुट्टियाँ (4)

             नए सत्र की पुस्तकें गर्मी की छुट्टियों तक खरीदी जा चुकी होती थी . हिंदी की पूरी पुस्तक मैं दो ही दिन में पढ़ डालती थी . बाकी पुस्तकें भी गाया बगाया पढ़ती ही रहती थी . पुस्तकों पर जिल्द चढाने का काम भी ज़रूरी होता था . बाउजी हम बच्चों से बाज़ार से अबरी मंगवाते . माँ से मैदा की लेई बनवाते ; जिसमे नीला थोथा भी डलवाते थे ताकि चूहे पुस्तकें न कुतर लें . फिर हम सब बच्चों के साथ बैठकर वे सभी पुस्तकों की जिल्द चढ़वाया करते थे . बाद में सभी पुस्तकों को ऊपर नीचे रखकर उन सब पर भारी वज़न रख दिया जाता , जिससे कि पुस्तकों पर चढ़े गत्ते बिलकुल सीधे रहें . अगले दिन सवेरे सभी किताबें की बढ़िया जिल्द बंध चुकी होती थी . 
                              छुट्टियों में कभी कभी सवेरे सवेरे ही माँ मूंग की दाल की पिट्ठी पीसती . मैं भी उसमें मदद करती थी . फिर हम दोनों उस पिट्ठी की मंगोड़ी बनाकर छत पर रख देते , तो शाम तक बिलकुल सूखी मंगोड़ीया मिलती थी कभी कभी माँ चावल के कुरकुरे और आलू के चिप्स भी सवेरे ही बनवा लेती . दिन में कड़ी धूप लगने पर शाम तक सभी चीजें शाम तक सूख जाती . फिर इनको कढ़ाई में तलकर खाने में बड़ा मज़ा आता था . गर्मी की छुट्टियों में बच्चों का कुछ न कुछ खाने का मन करता रहता . इसके लिए माँ पूरा कनस्तर भरकर आटे के बिस्कुट बनवा कर लाती . बिस्कुट की फैक्ट्री में अपना आटा, मक्खन , चीनी और दूध ले जाना होता था . फिर वहां बिस्कुट बनाकर दे दिए जाते और हम अपने कनस्तर में भर लाते . इसके बाद तो हमारी मौज होती थी . जब दिल आए, बिस्कुट निकालो और खाओ . जो स्वाद उन बिस्कुटों में था ,वैसा कहीं और नहीं मिल पाया . कभी कभी माँ मुझे एक किलो कच्चे चने भी देती थी , भुनवाने के लिए . मैं भाड़ पर जाती , जो कि पास में ही था . भाड़वाली स्त्री पहले भाड़ मैं आग जलाती. उस पर रेत से भरा बड़ा सा कढ़ाव रखती . जब वह रेत खूब गर्म हो जाता , तो उसमें कच्चे चने डालकर लकड़ी की डंडीयों से खूब हिलाती . चने खूब चटर पटर करते और खिल खिल जाते .फिर एक बड़ी सी छलनी में वह उन सभी को डालकर रेत छानकर अलग कर देती और चने मेरे थैले में ड़ाल देती . उन फूले भुने हुए चनों को लेकर मैं घर वापिस आती . माँ मुझे एक मुट्ठी गरम गरम चने तो तभी मुझे खाने के लिए दे देती थी .
             कभी कभी किसी चारपाई का बुना हुआ हिस्सा कमज़ोर होकर टूट जाता . तब प्रोग्राम बनता चारपाई बुनने का . मूंज घास की पतली रस्सियाँ लाई जाती . बाउजी और भाई मिलकर खाट बुनते . मैं चारपाई के एक पाए के पास बैठती और दूसरी ओर से बुनकर लाई हुई रस्सी पाए के नीचे से निकालती . कितनी कसी हुई और सुन्दर बुनाई होती थी चारपाई की ! बाद में अदवायन से खींचकर बुनाई को पूरा कस दिया जाता था . और इस तरह चारपाई दोबारा तैयार हो जाती थी इस्तेमाल के लिए .
          मैं कभी कभी सोचती हूँ की घर से दूर लाहौर में हॉस्टल में रहते हुए पढाई करके  बाउजी विज्ञान के स्नातक बने . फिर इतने सारे तरह तरह के काम उन्होंने कब और कहाँ सीखे ? डी ए वी कालेज के विज्ञान के  स्नातक थे तो अंग्रेजी भाषा पर तो पूरा अधिकार था. परन्तु उर्दू भाषा पर भी वे समान अधिकार रखते थे ; ये एक आश्चर्य का विषय है . जितने उन्हें शेक्सपीयर पसंद थे ,उतने ही ग़ालिब भी . रात को कभी कभी छत पर हमारा पूरा परिवार सोने से पहले गप शप करता . तब भाई भी अपने अपने तरह तरह के किस्से सुनाते और बाउजी भी . मैं रुचिपूर्वक सारे वार्तालाप का लुत्फ़ उठाती . बाउजी बहुत से शेर सुनाते  थे . उनमें से एक मुझे अब भी याद है :
     "दिल मत टपक नज़र से ,कि पाया न जाएगा .
     ज्यों अश्क फिर ज़मीं से , उठाया न जाएगा "        

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