Sunday, July 31, 2011

स्वागतम ! स्वागतम!



पुष्प गुच्छ में नव कलिका ने,   
शोभावृद्धि अपार बढाई .
सुख सौरभमय कर कुल अपना , 
हर्ष लहर अनुपम पहुंचाई .
दृग युगल उद्दीप्त हो उठे ,
छायाचित्र छवि जब निरखी.
नन्हे से ओ हीरे तुमसे ,
बढे प्रतिष्ठा पूरे कुल की !  

Saturday, July 30, 2011

नरेले के वो दिन(6)





 माँ ने नानी के घर भी चक्की पर घर में गेहूँ पीसकर आटा इस्तेमाल किया था और दादी के यहाँ भी वे चक्की चलाती ही रही थी . उन्हें नरेले में भी लगा कि घर में पिसा आटा ही खाना चाहिए . इसीलिए बाउजी के साथ जाकर वे खादी ग्रामोद्योग से हाथ की चक्की ले आईं . मुझे अब तक याद है कि चक्की सत्रह रूपये की थी . माँ और बाउजी कह रहे थे कि ज्यादा महंगी नहीं है . माँ को वह गाँव की चक्की से अधिक  पसंद आई थी . तो रोज़ सवेरे माँ उस पर गेहूँ पीसती थी . घर का पिसा आटा थोडा मोटा होता है . रोटी बनाने के आधे घंटे पहले गूंधकर रख देना होता है. परन्तु रोटी बहुत स्वादिष्ट बनती हैं . माँ हमेशा साथ में चने का आटा भी पीसती थी . हमारे घर हमेशा मिस्सी रोटी ही बनती थी. साल में अगर दो क्विटल गेहूँ आए तो कम से कम बीस किलो चने भी आते थे . 
                      दिल्ली के मकान में आने के बाद भी माँ कुछ वर्षों तक हाथ की चक्की का पिसा आटा ही खिलाती रही . चनों को चक्की पर दलकर दाल बना लेती थी . गेहूँ  को मोटा पीसकर दलिया बना लेती थी . पहले तो बाज़ार में नमक की भी डलियाँ मिलती थी . तो माँ नमक भी चक्की से ही पीसकर रख देती थी . तरी वाली सब्जी में नमक की डलियाँ डालते और सूखी सब्जी में पिसा हुआ नमक . जब कोई व्रत का त्यौहार होता तो माँ कुट्टू भी चक्की से पीसती और फिर उसका आटा इस्तेमाल करती . मुझे याद है झज्झर में माँ और नानी मिलकर चक्की पीसती और साथ में भजन भी गाती रहती थी . पर यहाँ तो वे अकेली ही पीसती थी . कभी कभार मैं भी माँ के साथ लग जाती . कभी कभी तो मैंने स्वयं चक्की चलाने का प्रयत्न किया . बड़ा ही दुस्तर कार्य है . मैं तो चंद मिनटों में ही थक जाती थी . 
                    सावन के दिनों में नरेले में बाहर बरामदे में एक खाट पर चादर बिछाकर माँ जवे(vermicelli) तोडती थी . मैदा को बहुत सख्त गूंध कर  गीले कपडे से ढक देती थी . फिर थोड़ी मैदा की गोली को दोनों हथेलियों के बीच दबाते हुए  लम्बी सी लड़ी बनती और फिर उस लड़ी को एक हथेली में पकड़कर दूसरे हाथ की बीच वाली अंगुली और अंगूठे की मदद से जवे तोडती जाती . माँ के जवे बहुत बढ़िया टूटते थे . सबकी एकसी मोटाई और एकसी लम्बाई होती थी . मैंने तो कई बार प्रयत्न किया . परन्तु मेरे जवे कोई मोटे कोई छोटे और विकृत ही बनते हैं . मेरी तो अंगुली और अंगूठा चिपक जाते हैं जवे बनाने में . परन्तु माँ तो बिना अंगुलियाँ चिपकाए चुस्ती से जवे बनाती थीं   
                        शाम तक जवे सूख जाते थे .तो उन्हें इकट्ठा करके रख लेते थे . उन्हें कढाई में सूखा भूनकर संग्रहित कर लेते थे . रक्षाबंधन की पूर्वसंध्या पर मुख्य द्वारों पर परमात्मा के प्रतीक चिन्ह बनाते ; जैसे राम -राम , ओउम या स्वास्तिक का चिन्ह . रक्षाबंधन की सुबह सबसे  पहले प्रभु के प्रतीक चिह्नों पर तिलक करके उनको नए बने हुए जवों का भोग लगाया जाता था . उसके बाद भगवान के प्रतीक चिन्हों पर, प्रथम राखी जो कि मौली की होती थी ; चिपका दी जाती थी . उसके बाद रक्षाबंधन का उत्सव मनाते और जवों की खीर खाते . इस दिन की मुख्य मिठाइयाँ  घेवर और फैनी ही होती थी .


नरेले के वो दिन (5)



 नरेले के स्कूल में हम बच्चों का बस्ता हल्का ही होता था. चार छोटी कापियाँ, चार छोटी पुस्तकें और एक स्लेट हुआ करती थी . साथ में तख्ती हाथ में ले जाते थे . उस समय कापी और पेपर पर काम कम करवाया जाता था . विद्यालय में ज्यादातर काम स्लेट और सलेटी की मदद से होता था . चाहे गणित के प्रश्न करने हों , या श्रुतलेख लिखना हो , या प्रश्नों का उत्तर लिखकर दिखाना हो ; सभी काम स्लेट पर ही करते थे . साथ में एक स्पंज का टुकड़ा गीला करके अपने पास रखते थे . अध्यापिका को स्लेट पर काम करके दिखाते और तुरंत स्पंज से मिटा देते . खाली समय में स्लेट पर चित्र भी बनाते रहते थे . या स्लेट पर जीरो , काटा खेलते रहते थे .
             स्लेट काले रंग का पतला सपाट चोकोर आयताकार पत्थर होता था जिसके चारों तरफ लकड़ी का चोखटा बना हुआ होता था . सलेटी सफ़ेद रंग का पतला सा लिखने के लिए होता था . जैसे चाक, जिससे ब्लैक बोर्ड पर लिखते हैं , मोटा होता है और भुरभुरा होता है . सलेटी काफी पतली और सख्त होती थी . तभी तो स्लेट पर कटाकट चलती थी . लिखते समय टक टक की आवाज भी आती थी . अगर आजकल भी स्लेट और सलेटी का प्रयोग हो तो पेपर बनाने के लिए इतने पेड़ न काटने पड़ें .

Friday, July 29, 2011

वाह करेला !(bitter gourd)

करेला  कड़वा भले ही हो ; लेकिन दिव्य गुणों से परिपूर्ण है . सिरदर्द में इसकी पत्तियों को पीसकर  माथे पर लगायें . मुंह के छालों के लिए पत्तियों का रस छालों पर लगाकर लार बाहर निकाल दें . करेले का रस भी यही काम करेगा .इससे मुंह के छाले ठीक हो जायेंगे. कब्ज़ के लिए करेले की सब्जी खाएं . बहुत छोटे बच्चे के  पेट में अफारा हो तो इसकी एक बूँद रस बच्चे की जीभ पर डालें ; इसमें शहद भी मिला सकते हैं . पेट के कीड़ों  के लिए 50 से  100 मि० ली० करेले का रस सवेरे खाली पेट लें. यह देखा गया है कि कीड़े मारने की दवाइयाँ खाने से साइड इफैक्ट्स तो होते ही हैं ; कई बार पेट के कीड़े भी पूरी तरह समाप्त नहीं होते . लेकिन 50 मी० ली० करेले का रस चार पांच दिन खाली पेट सवेरे सवेरे ले लिया जाए ,तो पेट के कीड़े तो मर ही जाते हैं ;कोई साइड इफेक्ट भी नहीं होता .हाँ इसकी मात्रा इससे ज्यादा नहीं लेनी चाहिए . ज्यादा मात्रा में इसका रस दस्त लगा सकता है. इसके  रस से बवासीर की शिकायत भी दूर होती है . मधुमेह के लिए एक खीरा एक टमाटर और एक करेला और  दो चार नीम दो चार सदाबहार के पत्ते व फूल का जूस निकालें  और सवेरे खाली  पेट लें . अगर  सोंठ, पीपल,और  काली मिर्च को करेले के जूसके साथ मिलकर लिया जाए तो लीवर ठीक होता है  पीलिया भी ठीक होता है . इसका थोडा सा रस खाली पेट ले लिया जाए तो त्वचा सम्बन्धी विकार भी नहीं होते 
 खाज व खुजली में  नीम का रस और करेले का रस  मिलाकर खाल पर मालिश की जाए तो आशातीत सफलता मिलती है . करेले के सब्जी नियमित रूप से लेने पर  नई माताओं को भरपूर दूध आता है ; साथ ही गर्भाशय की सूजन और संक्रमण से छुटकारा मिलता है . इसकी सब्जी खाने से इससे जोड़ों के  दर्द में भी लाभ होता है . फोड़ा न पके तो इसकी जड़ घिसकर फोड़े पर लगा दें . फोड़े की पस निकल जाएगी .  पथरी के लिए भी इसका थोड़ी मात्रा में रस खाली पेट लिया जा सकता है .कच्चा करेला भूनकर यदि घुटनों पर बांधा जाए तो जोड़ों के दर्द से आराम मिलता है 
    करेला कड़वा है ; परन्तु इसके सभी गुण मीठे हैं !   

Wednesday, July 27, 2011

नरेले के वो दिन (4)

पन्द्रह अगस्त के दिन विद्यालय में होने वाले समारोह के लिए जोर शोर से तैयारियां हो रही थी . ग्यारहवीं कक्षा की छात्राएं " कौमी तिरंगे झंडे , ऊंचे रहो जहाँ में . हो तेरी सर बुलंदी ,ज्यों चाँद आसमाँ में ." नामक देशभक्ति गीत की तैयारी कर रही थी . मुझे मन था की में भी इसमें हिस्सा लूं . मैं तृतीय कक्षा में प्रथम आई थी . कक्षाध्यापिका मुझे बहुत प्यार करती थी . मैंने उनसे यह इच्छा ज़ाहिर की . उन्होंने सुझाव दिया की "हंस किसका" नमक नाटक का मंचन करें तो समारोह में हिस्सा लिया जा सकता है . मैं उसमें सिद्धार्थ बनी और एक और लड़की देवदत्त.
              अध्यापिका ने खूब अभ्यास कराया . माँ ने मेरे लिए एक नई पोशाक सिली ; जिससे की मैं सिद्धार्थ नज़र आऊँ . परन्तु  निश्चित दिन से एक दिन पहले ही संयोजक ने हमारी अध्यापिका को बताया की कार्यक्रम बहुत अधिक हो गए हैं . अत: हमारा कार्क्रम रद्द करना पड़ेगा . उस दिन बहुत मायूसी हुई . यद्यपि अध्यापिका ने पूरा विश्वास दिलाया कि इसे फिर कभी प्रस्तुत करेंगे ; फिर भी उस दिन मैं उदास ही रही . बाद में तो सब भूल गई थी .
          मेरी कक्षा में पंजाबी लड़कियां तो थी ही ; कुमाऊँ की भी पांच या छ: लड़कियां थी . किसी समारोह में उन्होंने इस गाने पर नृत्य किया ," बेडू पाको बारो मासा ; नारेन काफल पाके चैता मेरी छैला ". पता नहीं क्यों ; यह गाना मुझे तभी याद हो गया और अच्छा भी बहुत लगता है . कुछ लोग कहते है कि मैं भी कुमाऊनी ही लगती हूँ . तब मैं सोचती हूँ की क्या पता कुछ पुनर्जन्म का चक्कर हो . बंगलोर में मुझे एक कुमाऊँ महिला मिली जो की अपनी डाक्टर बहू की परीक्षा हेतु वहां आई हुई थी . तब मैंने उनसे यह पूरा गीत लिखवाया . उस समय उनके मुख से भी ये बोल मुझे बहुत अच्छे लगे . 
            हम सभी बच्चों का एक कालांश तख्ती लिखने के लिए होता था . हम सभी सुन्दर सुन्दर लेख लिखते थे . घर आकर भीगी हुई मुल्तानी मिटटी से तख्ती को अच्छी तरह पोतते थे . फिर उसे हाथ में पकड़कर हवा में हिलाते थे . तख्ती हिलाते हुए एक गाना भी गाते थे ;" सूख सूख पट्टी " जब तख्ती सूख जाती तो पेंसिल से उस पर एक तरफ खड़ी लाइनें खींचते और दूसरी तरफ पड़ी लाइनें . खड़ी लाइनों में पहाड़े लिखते थे और पड़ी लाइनों में सुलेख लिखते थे . यह रोज़ का काम होता था . एक टिन की छोटी दवात में "राज रोशनाई " की काली स्याही की पुडिया डालते . फिर उसमें थोडा सा पानी डालते . फिर उसमें कलम को दोनों हाथों से पकड़कर गोल गोल घुमाते और गाना गाते " कौआ कौआ ढोल बजा ; चार आने की स्याही ला . आधी तेरी आधी मेरी . तू नहीं ले तो सारी मेरी "  गाना पूरा होने पर निरीक्षण करते की स्याही पूरी तरह से गाढ़ी हुई या नहीं . अगर स्याही फीकी हुई तो दोबारा यही प्रक्रिया दोहराई जाती थी . एक बार गाढ़ी स्याही हो जाती, तो लिखने का मज़ा ही आ जाता था



Monday, July 25, 2011

नरेले के वो दिन ! (3)


             

मैं नरेले के विद्यालय में पढ़ती थी . परन्तु दोनों भाई पढने के लिए दिल्ली में ही आते थे . तब शायद वे नवीं और दसवीं कक्षा में होंगे . बड़े सवेरे माँ उठकर नाश्ता और लंच बनाती. कोई गैस के चूल्हे की सुविधा तो थी नहीं . सर्दियों की कड़कती ठण्ड में माँ अंगीठी जलाती होंगी . उसमें भी वक्त लगता होगा . फिर दूध नाश्ता तैयार करना होता था . और फिर बाउजी दोनों भाइयों को भोर होने से बहुत पहले रेलवे स्टेशन जाकर ट्रेन में चढ़ाकर वापिस आते . ट्रेन में बहुत धक्का -मुक्की होती थी ; ऐसा बाउजी बताते थे . कितना कठिन होता होगा ट्रेन से दिल्ली जाना दोनों भाइयों के लिए ! और उसके बाद दिल्ली स्टेशन से अपने विद्यालय तक सात बजे तक पहुँचना भी कोई आसान न होता होगा . 
         भाइयों को स्टेशन पर छोड़ने के बाद बाउजी अपने जाने की तैयारी करते . माँ मुझे तैयार करके स्कूल भेजती . बाउजी भी ट्रेन से दिल्ली ही आते थे . दिल्ली से वापिस नरेले आकर कितना थक जाते होंगे भाई ! और फिर पूरा पढाई का जोर होता था . जो बच्चे कक्षा में  हमेशा प्रथम श्रेणी में ही सफलता पाते हैं ; उनसे अभिभावक व शिक्षक दोनों ही भरपूर आशा और अपेक्षाएँ रखते हैं . एक बार तो बड़े भाई इतना थक गए कि दिल्ली से वापिस आते समय ट्रेन में उनकी आँख लग गई . जब आँख खुली तो अपने को नरेले से दूर किसी स्टेशन  पर पाया . वहां काफी देर बैठने के बाद वापसी की ट्रेन मिली . उस समय तो फोन की सुविधा भी बहुत ही कम थी . तो जब तक भाई वापिस नहीं लौटे , तब तक माँ और बाउजी कितने चिंतित हुए होंगे, यह समझा जा सकता है 
         मैं तो विद्यालय से वापिस आकर खाना खाती और अपनी चाची की बेटियों के साथ खूब खेलती . घर घर खेलने के लिए छोटे बर्तनों में कच्चे प्याज के बारीक टुकड़े काटकर रख देते . फिर सब्जी पकाने की एक्टिंग करते और सबको दो दो या तीन छोटे प्याज़ के  टुकड़े मिल जाते . सब इसी में ही खुश हो जाते थे . उस समय छोटे बच्चे खेल खेल में जो गाने गाते थे ; वे या तो पुस्तकों की कविताएँ होती थी , या फिर देशभक्ति के गीत . मुझे याद है एक गाना हम बच्चे अक्सर गाते रहते थे ,"छोटे छोटे घूँघरू , बजाने वाला कौन ? धरती माता सो गई जगाने वाला कौन ?" कभी कभी जब महिला मंडल भी इकट्ठा बैठता , तो या तो वे भजन गाती थी ; या भी देशभक्ति का लोक गीत . एक गीत जो मैंने कई बार सुना ,"भारत के वीर, बताऊँ सजनी ! मेरा पी लिया खून, बताऊँ सजनी !" इसका भाव मुझे थोडा बड़ा होने पर समझ में आया की यह बात एक पाकिस्तानी सैनिक अपनी पत्नी से कह रहा है. यह बात मन में आश्चर्य और प्रसन्नता का एक साथ संचार कर देती है कि उस वक्त  हमारा समाज काफी ईश्वरभक्त और राष्ट्रभक्त था. आज के समाज में राष्ट्रभक्ति तो जाने कहाँ चली गई , परन्तु ईश्वरभक्ति जरूर विद्यमान है . यह अलग बात है कि मन से ईश्वरभक्ति न रहकर आडम्बर अधिक हो गया है 
              बरसात के दिनों में बहुत मज़े होते थे . छोटे छोटे मखमली लाल रंग के सुन्दर से मक्खी जितने कीट अचानक ही दिखने शुरू हो जाते थे . बरसात में मशहूर तीज का त्यौहार भी आता है . इसलिए इन कीटों को तीज का नाम दिया गया . हम सब सोचते थे कि बरसात में तीज बरसती हैं . हम उनसे खेलते थे . तीज से दस पन्द्रह दिन पहले से ही घरों में झूले डल जाते थे. सब लडकियां खूब झूला झूलती . साथ साथ सावन के गीत भी गाती थी . एक गीत था ,"काले पानी में लम्बी खजूर ; बिजली चम- चम करे " इस गीत के बोल का क्या अर्थ है ; मुझे आज तक समझ नहीं आया . हो सकता है कि यहाँ रूपक अलंकार बाँधा गया हो . खैर सावन की ठंडी सुहावनी हवा में झूले पर जो आनंद आता था, वह कहते नहीं बनता
                                    .और तीज वाले दिन की तो बात ही क्या थी ! सबके हाथों में सुन्दर मेंहदी होती थी . बाज़ार में घेवर और फेनी नाम की विशेष मिठाई इन्ही दिनों मिलती थी .घरों में मीठे गुलगुले और विभिन्न पकवान बनते थे. सभी पेड़ों पर झूले डल जाते थे . और सुन्दर रंग बिरंगी पोशाकों में सजी हुई स्त्रियाँ नई चूड़ियाँ पहनकर झूला झूलती थी . झूलते झूलते मधुर कंठ से वे सुन्दर सुन्दर गीत भी गाती थी . हम बच्चों को भी पेड़ के झूलों पर बैठने का अवसर मिलता पेड़ के ऊपर डला झूला ज्यादा लचकदार होता है . इसलिए ज्यादा लुत्फ़ देता है . नरेले में तो तीज के त्यौहार के बाद भी हम बच्चे हर रोज़ स्कूल से वापिस  आने के बाद ज़रूर झूलते थे .
    



Sunday, July 24, 2011

नरेले के वो दिन !(2)



नरेले में लड़कियों का सरकारी विद्यालय बहुत बड़ा था . प्रथम कक्षा से ग्यारहवीं कक्षा तक की छात्राएं वहां पढ़ती  थी . में अपने चाचाजी की लड़कियों  के साथ स्कूल में जाती थी . चाचाजी की तीन बेटियाँ उसी स्कूल में पढ़ती थी . उनकी दो छोटी बेटियाँ घर पर ही रहती थी . कई बार हम सब बहनें बड़ी मस्ती करते थे . 
                      आधी छुट्टी में लंच खाने के बाद हम सभी विद्यालय से बाहर आ गए . बाहर कीकर का एक बहुत बड़ा पेड़ था . उस पर हरी फलियाँ  पक कर पीलेपन की ओर अग्रसर हो रही थी . ऐसी पकी फलियों में थोडा मिठास आना प्रारम्भ हो जाता है . हम बच्चे इन फलियों के बहुत शौकीन थे . बस हममें से एक चढ़ गई पेड़ पर और तोड़ने  लगी पकी पकी फलियाँ . हम सभी नें खूब कीकर की फलियाँ खाई . तभी मेरी चाची की  बेटी शकुन्तला बोली ,"स्कूल नहीं जाना क्या ? आधी छुट्टी तो ख़तम भी हो गई होगी ." हम सभी स्कूल की तरफ मुड़े तो पाया की कक्षाओं में अध्यापिकाएं आ चुकी हैं . अब तो हम सब बहुत घबराए . अगर कक्षा में गए तो बहुत डांट पड़ेगी . परन्तु हमारे बस्ते तो कक्षाओं में ही थे . अब करें तो क्या करें ? मेरी चाची की बड़ी बेटी बाला नें एक टोटका बताया . उसे भी किसी और बच्चे ने बताया था , या उसने खुद ईजाद किया था ये तो पता नहीं , परन्तु निकला बड़ा कारगर ! उसने कहा सब एक एक छोटी कंकड़ उठाओ और अपने सिर के ऊपर से ले जाकर पीछे की तरफ ड़ाल दो तो डांट नहीं पड़ती . 
             हम सभी ने ऐसा ही किया . जब पूरी छुट्टी की घंटी बजी तो हम भागे भागे अपनी कक्षाओं में गए . हमारे बस्ते वहीँ पड़े थे . हम ख़ुशी ख़ुशी अपने बस्ते उठा लाए. हमें किसी ने डांट नहीं लगाई. किसी का ध्यान हमारे बस्तों की ओर गया ही नहीं ! तब से मैं तो बाला की कायल हो गई .मैंने सोचा कि वह तो टोटकों की एक्सपर्ट है . फिर कोई समस्या आती तो बाला से ही मैं समाधान पूछती थी . 

नरेले के वो दिन !

पहाड़ी धीरज के मकान मालिक ने इतना परेशान किया कि बाउजी ने निश्चय कर लिया कि कहीं और चले जायेंगे . चाचाजी नरेले में रहते थे . बाउजी ने सोचा कि कुछ समय बाद तो अपने खरीदे गए मकान का कब्ज़ा मिल ही जाएगा ; तब तक नरेले जाकर किराये पर रह लेंगे . तब मैं तृतीय कक्षा में थी और प्रभा ने तो चलना भी नहीं सीखा था .
           नरेले में जो मकान किराये पर मिला उसे कप्तान का मकान कहा जाता था . उस मकान का मालिक काफी बूढा था परन्तु था चुस्त दुरुस्त . किसी ज़माने में कैप्टन रहा होगा . उसकी पत्नी जवान और खूबसूरत थी . बहुत खुशमिजाज़ और हंसमुख महिला थी .खुद कार ड्राइव करके जगह जगह जाती थी . उनकी बड़ी बेटी तो इतनी गोरी और सुन्दर थी कि मैं सोचा करती कि इन्हें अगर मैं छू लूं तो मैल न चढ़ जाए . ये तो बाद में बड़े होने पर पता चला कि यह तो एक मुहावरा भी है कि" इतनी गोरी कि छूने पर मैली हो जाए ". पूरे बड़े से मक़ान की छत पर उसका पढने का कमरा था . मैं कभी छत पर जाती तो उसे दूर से देखती . उसके बाल भी कुछ घुंघराले थे . वह मुझे बिलकुल परी के समान प्रतीत होती. मुझे बाद में पता चला कि वह डाक्टरी की पढाई कर रही थी . कप्तान की दूसरी और तीसरी बेटियाँ भी सुन्दर थी ;पर उससे कम . वे दोनों विद्यालय जाती थी .
 मकान में करीब छ: या सात किराए दार तो होंगे ही . एक किरायेदार थी एक सिलाई कढ़ाई की टीचर. उसे उषा कंपनी की तरफ से किराये पर रखा गया था. उसके पास पूरे दिन ढेर महिलायें सिलाई कढ़ाई सीखने के लिए आती थी . पूरा दिन रौनक लगी रहती थी . माँ नें भी उससे सिलाई सीखी . माँ ने मेरे  और प्रभा दोनों  के लिए बहुत सुन्दर घेरदार फ्राकें बनाई. में तो उसे पहन कर गोल गोल घूमती थी . उससे फ्राक का निचला हिस्सा पूरा फूल जाता और बहुत मज़ा आता . माँ ने मेरे लिए छोटे छोटे गरारे भी बनाये . अरे वही ; जो पुराने मुसलमानों की छोटी लड़कियां पैरों में पहना करती थी . कभी कभी जब सिलाई वाली बहनजी को किसी काम से बाहर जाना होता ; तो सभी महिलायें नाच गानों की महफ़िल जमा लेती . पंजाबी महिलायें एक गीत गाया करती थी , जो मुझे कुछ कुछ याद है . वो था ,"छोले लाएचियां वाले, कि लाएची दानियाँ वाले" अर्थात जो स्वादिष्ट छोले बने हुए है उनमें इलाइची के दाने डाले हुए हैं . इस गाने को गाते हुए वे भोली पंजाबी महिलायें सलवार कुरते में वो ठुमके लगाती थी कि देखते ही बनते थे . परन्तु बहनजी के वापिस आते ही चुप्पी छा जाती और सब सिलाई सीखना शुरू कर देती . सिलाई की बहनजी माहिर थी अपने हुनर में . उनका विवाह भी कप्तान के मकान में ही हुआ .
 
                मेरे विद्यालय कि एक अध्यापिका जो कि बंगाली महिला थी ; भी वहीँ किराए पर रहती थी . में उनसे बहुत शर्माती थी . ऐसा होता ही है . बच्चे अपनी स्कूल टीचर से थोडा झिझक खाते ही हैं . एक बार माँ प्रभा को घर में सोता हुआ छोड़कर पास ही दुकान से क्रीम लाने के लिए चली गई . सोचा होगा कि जल्दी ही वापिस आ जाऊंगी . परन्तु शायद देर हो गई . मैं जब विद्यालय से वापिस आई तो घर के बाहर ताला लगा हुआ था . प्रभा उठ चुकी थी और किसी को अपने पास न पाकर रो रही थी . मैं घर के दरवाजे पर ताला देखकर तो परेशान थी ही ; परन्तु प्रभा के रोने से बहुत घबरा गई थी . मैं भी रोने लगी . मैंने सोचा माँ पता नहीं कहाँ गई . प्रभा को बाहर कैसे निकालूँ . मुझे रोता देखकर और प्रभा के रोने की आवाज़ सुनकर बंगाली टीचर घर से बाहर आई . उन्होंने मुझे पुचकारकर अपने साथ सटा लिया . वे मेरे आंसू पोंछने लगी . तभी माँ हाथ में डोलची लिए आती दिखाई दी . मेरी तो जान में जान आई . मैं चुप हो गई . माँ ने जल्दी से ताला खोला और प्रभा को गोदी में उठाकर चुप कराया . बंगाली टीचर ने माँ को कहा ,"आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था . बच्चे परेशान हो रहे थे ." माँ बोली ,"मैं तो तुरंत ही आ जाती ; परन्तु वहाँ थोड़ी भीड़ थी . इसलिए देर हो गई . आपका धन्यवाद . आपने मेरी बेटी को संभाल लिया ." वे मुस्कुराई और मुझे प्यार करती हुई अपने घर चली गई . तब से मेरी उनके साथ थोड़ी झिझक खुल गई थी .  

Wednesday, July 20, 2011

20 जुलाई 1979

विद्यालय से छुट्टी होने के पश्चात वापिस घर आई तो दरवाजे पर ताला लगा हुआ था . मैंने सोचा सब लोग कहाँ चले गए ? माँ ,बाउजी , अप्पू, भाभी और प्रभा सबको घर पर होना चाहिए था . पड़ोस में मौसीजी से घर की चाबी मांगने गई . वे दोपहर का खाना बना रही थी . चाबी देते हुए बोली ,"सभी तेरी भाभी को लेकर होली फॅमिली अस्पताल गए हुए है . तू मेरे पास खाना खा ले . बाद में दरवाज़ा खोलना ". मैंने विनम्रता से मना करते हुए घर की चाबी ले ली .
                         मैं सोचने लगी सब भाभी के साथ अस्पताल गए हैं ; तो शायद कोई खुशखबरी ही आएगी . फिर शंका भी हुई कि भाभी ठीक तो है . फ़ोन तो घर में था नहीं . पूछती भी तो किससे ? बस प्रतीक्षा ही करनी थी कि कोई घर पर आए तो बताए. एक एक पल भारी लग रहा था . मैंने रसोई में देखा . माँ खाना तो बनाकर रख गई थी . मैंने खाना खाया और फिर अखबार पढ़ा . फिर अपने कपडे भी धो डाले . तब तक भी कोई न आया .
                     शाम के साढ़े पांच या छ: बजे के करीब माँ बाउजी और अप्पू वापिस आए . सभी बहुत खुश थे . माँ ने बताया ,"अप्पू का भाई आया है ."
मैं बहुत प्रसन्न थी . अप्पू कहे जा रहा था ,"मूछ्ल्मानी !मूछ्ल्मानी "  मैंने माँ से पूछा ,"अप्पू ये क्या कह रहा है ?". माँ बोली ,"इसने अस्पताल में बुरका पहने हुए मुसलमानी औरतें देखी . ये बात अप्पू तुझे समझाने की कोशिश कर रहा है ." मैंने अप्पू को गोदी में उठाया और उसे खूब प्यार किया . 
              अध्यापिका की नियुक्ति होने के पश्चात् यह मेरे लिए पहला अवसर था की मैं अपने स्टाफ का मुंह मीठा कराती . उस समय काजू की बर्फी का प्रचलन कुछ कम था . टीचर्स अक्सर खोये की बर्फी से ही मुंह मीठा कराती थी . मैं सवेरे विद्यालय पहुंची तो मैंने सबको यह खुशखबरी दी. सबने मुझे बधाई दी. चपरासी को भेज कर मैंने काजू की बर्फी मंगवाई और सबका मुंह मीठा कराया . आखिर विक्रम ने मुझे चौथी बार बुआ जो बनाया था !

Sunday, July 17, 2011

do not search stars!

lots of small stars,
hopefully awaited,
with withering patience,
still glittering,
with all their might,
one single word of praise,
for all their efforts.
a smiling look,
which could be convincing,
and supportive,
for their sheer existence.
one single glance of yours,
could have worked wonders.
but your indifference,
broke their hearts.
first they dimmed,
then they died.
ignorant of innocence,
seeking your support.
you were busy,
seeing your dreams.
when stars yearned,
to see star in your eyes,
you were still sleeping!
so they vanished.
coming back to your senses,
you are searching them.
is that of any use?

Thursday, July 14, 2011

परछाई मत पकड़ो




परछाई मत पकड़ो
हाथ नहीं आएगी 
लम्बी खिंच जायेगी 
प्रकाश के पुंज की
धारा को देख लो 
दिशा पहचान लो 
काम वही आएगी 
बढ़ चलो किरणों संग 
मार्ग दर्शायेंगी 
स्रोत तक लाएँगी
किरणें वहाँ रूकती हैं 
बाधा जहाँ दिखती है 
बाधा के पृष्ठतल में 
छाया का वास है 
भ्रम का आभास है 
लुभावनी छलना है 
क्यों उसे पकड़ना है ?
हाथ नहीं आएगी 
लक्ष्य से हटाएगी 
पथ भ्रमित कर देगी 
निराशा से भर देगी 
इसीलिए ठहर जाओ 
परछाई मत पकड़ो 
आशा को साथी चुन 
किरणों के जाल तले 
स्रोत की दिशा पकडे 
जब तक अस्तित्व है 
मंथन करते मन से 
चलते ही जाना है 
छाया से उलझने पर 
बाधा ही आएँगी 
ज्ञान का प्रकाश पुंज 
विलुप्त हो जाएगा 
तम शेष रहने पर 
परछाई भी न होगी 
श्रेष्ठ होगा यही 
छाया के घेरों का 
व्यूह भेद कर सत्वर 
ज्ञान की उज्ज्वलता में 
समर्पित चेतना को 
लक्ष्य तक पहुँचाओ
परछाई छोड़ परे
सूर्य के निकट आओ  

विद्यालय का प्रथम दिन

छोटा सा बस्ता लिए जब पहले दिन मैं बाउजी के साथ स्कूल में गई तो मैं बड़ी प्रसन्न थी . बाउजी सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद मुझे एक कमरे में ले गए . वहां एक बड़ी सी उम्र की महिला अध्यापिका थी . वहीँ पर मुझे बिठाकर बाउजी चले गए ; यह कहते हुए की छूट्टी होने पर घर आ जाना. मेरा घर स्कूल के पास ही था . वहां पर कुछ लड़कियां रो भी रही थी . मैं सोच रही थी कि स्कूल तो इतना अच्छा है , फिर ये रो क्यों रही हैं . हम सबमें से चार लड़कियों को ऊपर के कमरे में ले जाया गया . वहां एक अध्यापिका ने कहा ,"कल सभी बिना लाइनों वाला पेपर लेकर आना . तुम्हारा पेपर लेकर तुम्हें दूसरी कक्षा में चढ़ा देंगे . उसने कहा कि अपनी कापी में लिख लो कि क्या क्या लाना है . 
                           विद्यालय में प्रवेश करने से पहले ही बाउजी ने इतना पढ़ा दिया था कि मुझे अच्छी हिंदी लिखनी आती थी . मैंने देखा कि उनमें से एक लड़की लिख रही थी ,"बिन लाइन का पेपर ". मैं सोच रही थी कि वैसे तो लिखना चाहिए ,"बिना लाइन का पेपर " परन्तु शायद यह लड़की ज्यादा होशियार होगी . उस लडकी का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली लग रहा था . तो मैंने उसको गलत नहीं कह सकी . मैंने अपनी बांस की कलम निकाली और टिन की छोटी सी दवात निकाली जिसमे नीली स्याही थी . दवात की डाट हटाकर मैंने कलम से अपनी कापी में लिख लिया . 
                 हम बच्चे अपने साथ तख्ती भी लाये थे और साथ में काली स्याही की दवात भी . तख्ती को मैंने मुल्तानी मिटटी से अच्छी तरह से पोत रखा था .  उस पर बाउजी ने पेन्सिल से कटखने किये हुए थे . हम बच्चों को तख्ती लिखने को कहा गया . बाउजी ने बांस की कलम का बड़ा सुंदर टक काटा हुआ था . वे तेज़ चाकू से बांस की कलम संवारते और तख्ती खड़ी करके उस पर कलम की चोंच रखकर उस पर तेज़ चाकू रखते . फिर उसके ऊपर जोर से मुक्का मारते . तब कलम का तिरछा सुन्दर सा टक कटता. उससे बहुत सुन्दर लिखाई आती थी . मैंने बाउजी के पेंसिल से किये गए कटखनो पर काली  स्याही भरकर कलम चलाई. बहुत सुन्दर अक्षर बने थे .

                      हम बच्चों की जल्दी ही छुट्टी कर दी गई . घर जाकर माँ को मैंने सब बात बताई . शाम को बाउजी को माँ ने बताया कि कल से इसे सीधे दूसरी कक्षा में ही बैठा दिया जाएगा . बाउजी बोले कि दाखिले के समय ही पूछा गया था कि बच्चे को कितनी पढाई आती है . इसीलिए चार बच्चों को सीधा दूसरी कक्षा में ही दाखिल कर लिया होगा . अगले दिन हम चार लडकियों का इम्तिहान लेने के बाद हमें दूसरी कक्षा में दाखिल कर लिया गया

Wednesday, July 13, 2011

सच्चा वायदा !

तब मैं चतुर्थ कक्षा की छात्रा थी. मेरा गणित का पेपर ज्यादा अच्छा नहीं हुआ था . या शायद ऐसा मुझे लगा था . परिणाम आने का समय करीब आता जा रहा था . मुझे डर लग रहा था . मैंने देखा था कि बड़े लोग भगवान के नाम पर कुछ रुपयों का प्रसाद चढाते तो उनके काम बन जाया करते थे .
             मैंने मन ही मन सोच लिया कि अगर गणित में पूरे नंबर आए तो शिवजी को दो पैसे चढ़ाऊँगी . लेकिन यह लग रहा था कि ऐसा हो नहीं सकता . मेरे नंबर तो कम ही आयेंगे . मैं परिणाम का बेसब्री से इंतज़ार करने लगी . अंतत: परिणाम आया . मेरी प्रसन्नता और आश्चर्य का ठिकाना न था . मेरे गणित में पूरे नंबर थे . में बहुत खुश थी 
        भगवान् से किया हुआ वायदा मुझे बखूबी याद था . सवेरे बाउजी ने मुझे पांच पैसे जेबखर्ची के लिए दिए . बस्ता लेकर मैं स्कूल के लिए चल दी .रास्ते में ही मंदिर पड़ता था . मैं  रूककर मंदिर में गई . वहां शिवजी की मूर्ति पर पांच पैसों का सिक्का चढ़ा दिया . लेकिन मैंने तो दो पैसों का ही वायदा किया था . अब मैंने सोचा कि क्या किया जाए . उस  मूर्ति पर और पैसे भी चढ़े हुए थे . मैंने सोचा भगवान सब जानते हैं . अगर मैं तीन पैसे का सिक्का उठा लूं तो गलत न होगा . 
               मैंने इधर उधर देखा . सभी अपनी अपनी पूजा में मग्न थे . मैंने चुपके से तीन पैसे का सिक्का उठाया . जल्दी से बस्ता उठाया और बिना पीछे देखे जल्दी-जल्दी अपने स्कूल की ओर चल दी .ये सब देखकर शिवजी भी मुस्कुरा रहे होंगे!




 





  

Till Dawn Comes...

small sparrow
with its small beak
tries to pour
all its affection
all its energy
into the open mouth
wide open till end
always craving
always crying
ready to consume
every big effort
in a single gulp!
with more energy
the tired bird
makes one more effort
again the mouth
becomes more wide
the sparrow forgets
to feed itself
gets dead tired
clinging to branch
gets some rest
but desperate calls
make it alert
to put more efforts
sparrow knows
it will put efforts
till the calls calm down
till the expectations
no longer arise
till all the tasks
have reached their goal
then the small sparrow
will complacently rest
and sleep till dawn ;
when alighting from sky
small soft golden rays,
will shine on its lips
and put beautiful smile
on its ever calm face
it will patiently wait
for that charming dawn !

Tuesday, July 12, 2011

अपराध बोध

अचानक किसी आवश्यक कार्य से मेरा पिछले महाविद्यालय में जाने का मौका मिला . मुख्य द्वार से अन्दर जाते ही मेरी सबसे प्रिय प्राध्यापिका मुझे दिखाई दी . बड़े उत्साह के साथ मैंने उन्हें नमस्कार किया . "बहुत प्रसन्न लग रही हो . कोई विशेष खबर है तो सुनाओ ." उन्होंने बहुत ही प्रसन्न मुद्रा में पूछा .
     "हाँ मैम. मेरी नियुक्ति राजकीय विद्यालय में अध्यापिका के पद पर हो गई है "
     "भई वाह ! अपने पढाए हुए बच्चे जब ऐसे समाचार सुनते हैं ; तो मज़ा ही आ जाता है "
     "मैम ! आपका ही आशीर्वाद है ." मैंने बहुत विनम्रता से कहा . वे मुझे अपने साथ स्टाफ रूम में ले गई और सबको यह खबर सुनाई. सभी ने मुझे बहुत शाबाशी दी . तभी अंग्रेजी कि प्राध्यापिका को कुछ याद आया . वे बोली " अगर इस इतवार को तुम्हे कुछ काम न हो तो कालेज आ जाओ ."
     मैंने कहा ,"अवश्य मैम !क्या काम है?"
     वे बोली ,"कम्पार्टमेंट बच्चों की परीक्षा में निरीक्षण का काम करना है . तीन घंटे की परीक्षा है . दस रूपये निरीक्षण भत्ते के रूप में मिलेगा . अगर पक्के तौर पर बताओ तो तुम्हारी ड्यूटी लगा दूं ?"
     एक तो उनके द्वारा दिए गए कार्य को मना नहीं कर सकती थी . दूसरी बात थी कि कालेज की परीक्षा में निरीक्षण का कार्य करना आकर्षक प्रतीत हो रहा था .मैंने तुरंत कहा ,"हाँ मैम ! मैं ज़रूर आ जाऊँगी.'
               निश्चित रविवार को परीक्षा हाल में मेरे साथ एक और भी निरीक्षिका नियुक्त थी . हमने सभी परीक्षार्थियों को उत्तर पुस्तिकाएं दी . फिर घंटी बजने पर प्रश्न पत्र बांटे . इसके बाद सबके हस्ताक्षर एक निश्चित फार्म पर लेने थे . एक छात्र से हस्ताक्षर करते समय मुझे लगा कि वह मेरे सामने सकुचा सी रही थी . मैंने उसे बड़े गौर से देखा . "अरे!" मैंने मन में सोचा ,"यह तो नीलम है . यह मेरे साथ आठवीं कक्षा में पढ़ती थी . क्या ये इतनी बार फेल हो गयी ,जो कि अब बी. ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा दे रही है ."
     नीलम झेंपी हुई सी हस्ताक्षर कर रही थी . मुझे समझ में नहीं आया कि उसे पहचान की स्वीकृति भरी मुस्कान दूं , या यह दिखाऊँ कि उसे पहचानती ही नहीं . उससे पहचान दिखाती तो वह मुझसे मदद की आशा अवश्य करती . यह सब मेरे लिए असमंजस का विषय हो जाता . मैं पूरे तीन घंटे इसी उहापोह में रही . परीक्षा समाप्ति की घंटी बजी . सभी से उत्तर पुस्तिकाएं इकट्ठी की गई. उससे उत्तर पुस्तिका वापिस लेते हुए मैं उससे नज़रें न मिला पाई. मुझे अपराध बोध हो रहा था . मैं उसकी मदद कर सकती थी .शायद वह पास हो जाती . लेकिन मैंने तो उसे इतना भी नहीं जताया कि मैं उसे पहचानती भी हूँ .
       वह चुपचाप परीक्षा भवन से बाहर चली गई . मैं कनखियों से उसे जाते हुए देखती रही . आज भी वह अपराध बोध मुझे कभी कभी कुरेदता है . फिर यह भी सोचती हूँ कि शायद उसकी मदद करना भी तो एक गलत काम होता. फिर भी पता नहीं क्यों ; आज भी मैं स्वयं को अपराधी ही मानती हूँ .



Sunday, July 10, 2011

हिंदी में यूं लिखा

जी मेल पर लिखा 
कोपी पेस्ट किया 
तब मेरे ब्लाग  ने 
हिंदी का रूप लिया 

Saturday, July 9, 2011

No One Knows

Will there be;
 one more day in my life?
enjoying every happy moment,
laughing and cracking jokes,
seeing beauty of nature,
being appreciated
 by nears and dears
getting everything
 that one craves for,
and life seems bliss
then" Tomorrow" is
never cared for
not for a moment
this question
 strikes the mind
BUT; when the Sun dies
all hopes pass by
deep dark night
entraps you
no outlet is to be seen
dying embers chill down
signs of life start getting dull
then all of a sudden
you wake up
asking yourself
will there be,
one more day in my life ?
when a thing is
in your hand
you never value it
whenever it starts
slipping by
you want to
hold it tight.
till when can you hold it?
no one knows...........

Tuesday, July 5, 2011

सत्य होगा स्वप्न भी !

मैंने कब चाहा देखूँ सपना ?       
खुरदरी सतह पर, 
घिसते घिसते, 
पांव जब बने पत्थर .
संवेदना से रिक्त हुई, 
एक एक सिसकती कोशिका, 
तब शून्य चेतना लिए, 
बोझिल सा मस्तिष्क ,
यूं ही लुढ़क गया ,
पथरीले वीराने में .
आँख की अश्रुहीन पलकें, 
परस्पर  बनी संबल . 
और उस एक पल ;
जन्म हुआ अनायास ,
भोले से स्वप्न का.   
भविष्य के महलों में, 
सुंदर सी सेज सजा, 
मन गुदगुदाता सा, 
कोमल स्पर्श की, 
षडरस व्यंजनों की, 
मादक सुगंध की ,
स्वर्णिम अनुभूति दे,
पल भर हंसा गया . 
ओ मेरे भोले सपने, 
मैंने चाहा नहीं तुझे देखना . 
तू स्वयं चला आया . 
पर उपालंभ न दूँगी ,
कि तूने मुझे छला. 
मैं तो आभारी हूँ; 
तिमिर के इस बीहड़ में ,
प्रकाश की किरण का, 
आभास तो हो पाया. 
कौन जाने कब किस पल ,
ये धुंधला आभास ,
भर दे प्रकाश ,
मेरी सुप्त चेतना में .
थक कर टूट चुकी थी जो, 
गहन वेदना में.
चेतना जागृत कर ,
प्रेरणा प्रदान कर ,
ओ नन्हे स्वप्न!
तूने मुझे जगा दिया.
नींद से उठा दिया.
मैंने कब चाहा देखूँ सपना ?
पर सच  को पाने का 
चेतना जगाने का 
प्रेरणा पाने का 
आधार तो है कल्पना.  
अब तो चाहती हूँ मैं 
देखना; एक और सपना !    
Schlaf

Sunday, July 3, 2011

इंदुजी के साथ एक सुबह

    




   मित्रों और सहेलियों से मिलने के बाद कुछ ऐसा प्रतीत होता होता है , मानो कि ऊर्जा का स्तर ऊर्ध्वगामी हो रहा हो . परन्तु किसी-किसी मित्र परिवार से इतनी आत्मीयता प्राप्त होती है , कि कहते नहीं बनता . इंदुजी का परिवार उसी में से एक परिवार है . 
       रविवार की सुबह जब मैं उनके घर पहुंची , तो मुदित ने मुख्य द्वार पर स्नेहपूर्ण अगवानी की. बिलकुल नहीं बदला मुदित! आठ वर्ष पहले जैसे मुदित को बंगलौर के बैनरघाटा रोड पर मैंने देखा था ; हूबहू वही छवि मेरे सामने उपस्थित थी . लगता ही नहीं कि आई .आई एम् अहमदाबाद से प्रबंधन में निष्णात होने के पश्चात्  विवाह भी कर चुका है . वही भोलेपन से परिपूर्ण मुखमंडल पर, गौरवपूर्ण आभा, ज्यों की त्यों विद्यमान है .
              घर के अन्दर प्रवेश किया तो इंदुजी और उनकी पुत्रवधू ज्योति फ्रूट चाट बना रहे थे; नाश्ते के लिए .   प्राची विवाह के पश्चात् अमेरिका से तीन सप्ताह के लिए दिल्ली आई हुई थी . विशेष तौर पर उसी से तो मिलने के लिए मैं वहां गई थी . हम खूब गले मिले . विवाह के बाद प्राची और भी अधिक सुंदर लग रही थी . वह केलिफोर्निया में गूगल के पास ही रहती है . हमने खूब गप्पें मारी . फ्रूट चाट खाई . ज्योति ने बहुत स्वादिष्ट चाय पिलाई . 
                       ऐसा लगा ही नहीं कि किसी और घर में बैठी हूँ . सबने ऋचा और अंकित के बारे में पूछा . उनके पति ने भाई के हाल चाल पूछे . उसके बाद तो मैं और प्राची कम्प्यूटर लेकर बैठ गए . प्राची ने मेरे ब्लाग देखे . उसने इंदुजी को भी दिखाए . मैं और प्राची इंदुजी से बार बार आग्रह करने लगे कि वो भी ब्लाग लिखें . इंदुजी की पाक शास्त्र में तो रूचि है ही साथ ही अन्य कलात्मक वस्तुएं बनाकर घर को सजाने सँवारने में भी उनकी पूर्ण निपुणता है . हमने उन्हें प्रेरित किया कि वे इसी प्रकार के ब्लाग लिखने प्रारम्भ करें . 
                  तभी ज्योति ने मेरे लिए बहुत स्वादिष्ट सैंडविच बनाया . मुदित से मैंने कहा ," बेटे एक सैंडविच और खिलाओ ." वह तुरंत ज्योति से एक और सैंडविच बनवा लाया . इंदुजी और बच्चे लंच तक वहीँ पर रुकने के लिए बार बार कह रहे थे . इतने स्नेहपूर्ण वातावरण से हिलने का भी मन नहीं कर रहा था ; परन्तु रविवार एक था और काम अनेक . बोझिल मन से सबसे विदा लेती हुई मैं जब नीचे आ रही थी तो घर के बाहर मुझे ज्योति मिली , जो कि बुटीक जा रही थी . मैंने उसे बहुत प्यार किया और वापिस अपने घर आ गई