Sunday, July 24, 2011

नरेले के वो दिन !(2)



नरेले में लड़कियों का सरकारी विद्यालय बहुत बड़ा था . प्रथम कक्षा से ग्यारहवीं कक्षा तक की छात्राएं वहां पढ़ती  थी . में अपने चाचाजी की लड़कियों  के साथ स्कूल में जाती थी . चाचाजी की तीन बेटियाँ उसी स्कूल में पढ़ती थी . उनकी दो छोटी बेटियाँ घर पर ही रहती थी . कई बार हम सब बहनें बड़ी मस्ती करते थे . 
                      आधी छुट्टी में लंच खाने के बाद हम सभी विद्यालय से बाहर आ गए . बाहर कीकर का एक बहुत बड़ा पेड़ था . उस पर हरी फलियाँ  पक कर पीलेपन की ओर अग्रसर हो रही थी . ऐसी पकी फलियों में थोडा मिठास आना प्रारम्भ हो जाता है . हम बच्चे इन फलियों के बहुत शौकीन थे . बस हममें से एक चढ़ गई पेड़ पर और तोड़ने  लगी पकी पकी फलियाँ . हम सभी नें खूब कीकर की फलियाँ खाई . तभी मेरी चाची की  बेटी शकुन्तला बोली ,"स्कूल नहीं जाना क्या ? आधी छुट्टी तो ख़तम भी हो गई होगी ." हम सभी स्कूल की तरफ मुड़े तो पाया की कक्षाओं में अध्यापिकाएं आ चुकी हैं . अब तो हम सब बहुत घबराए . अगर कक्षा में गए तो बहुत डांट पड़ेगी . परन्तु हमारे बस्ते तो कक्षाओं में ही थे . अब करें तो क्या करें ? मेरी चाची की बड़ी बेटी बाला नें एक टोटका बताया . उसे भी किसी और बच्चे ने बताया था , या उसने खुद ईजाद किया था ये तो पता नहीं , परन्तु निकला बड़ा कारगर ! उसने कहा सब एक एक छोटी कंकड़ उठाओ और अपने सिर के ऊपर से ले जाकर पीछे की तरफ ड़ाल दो तो डांट नहीं पड़ती . 
             हम सभी ने ऐसा ही किया . जब पूरी छुट्टी की घंटी बजी तो हम भागे भागे अपनी कक्षाओं में गए . हमारे बस्ते वहीँ पड़े थे . हम ख़ुशी ख़ुशी अपने बस्ते उठा लाए. हमें किसी ने डांट नहीं लगाई. किसी का ध्यान हमारे बस्तों की ओर गया ही नहीं ! तब से मैं तो बाला की कायल हो गई .मैंने सोचा कि वह तो टोटकों की एक्सपर्ट है . फिर कोई समस्या आती तो बाला से ही मैं समाधान पूछती थी . 

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