Friday, August 5, 2011

बोझिल बचपन

" हर रोज़ विद्यालय में लेट आते हो ; और मुंह लटकाकर खड़े हो जाते हो . शर्म नहीं आती ?" मैं राहुल के ऊपर बरस रही थी और वह मुंह नीचा किये चुपचाप खड़ा था . लगभग प्रतिदिन वह विद्यालय में देरी से पहुँच रहा था . मैं उसकी कक्षाध्यापिका थी . ज्योंही उपस्थिति पंजिका खोलकर उपस्थिति लगाने को होती ; वह टपक जाता और मेरा पारा सातवें आसमान पर पहुँच जाता . 
                 इस बार तो हद ही हो गई . सात दिन से वह विद्यालय में नहीं आ रहा था . कोई खोज खबर भी नहीं थी . वह पढने में साधारण स्तर का विद्यार्थी था . कोई खास शरारती भी नहीं था . पर अनुशासन भी कोई चीज़ होती है . यह क्या की हर रोज़ या तो विद्यालय में देर से आएगा या फिर सात दिन गायब ही हो जाएगा . कोई फोन नंबर भी नहीं दिया हुआ था राहुल ने . प्रवेश पंजिका में पता ढूँढने की कोशिश की . मालूम हुआ की वहाँ से उसका परिवार कहीं और जा चुका था. बच्चों ने बताया की उसने उन्हें कभी अपना घर नहीं दिखाया . जब देखो टालता ही रहा . 
              अब तो मुझे बहुत क्रोध आया . आखिर ये लड़का कर क्या रहा है . मन में शंका हुई की कोई गलत काम तो नहीं कर रहा . यही चौदह पन्द्रह वर्ष की उम्र ही तो होती है , जब बच्चे भटक जाया करते हैं . प्रिंसिपल के ऑफिस में जाकर मैंने उन्हें सब कुछ बताया . उन्होंने सलाह दी की कुछ समय इंतज़ार कर लेते हैं ; फिर भी नहीं आया तो नाम काट देंगे .
           शनिवार को मेरा चतुर्थ कालांश खाली हुआ करता है . मैं अभ्यास पुस्तिकाएं जांच रही थी . अचानक राहुल ने स्टाफ रूम में आकर मेरे पैर छुए . मैं एकदम हैरान हो गई . मुझे गुस्सा भी बहुत आया . मैंने उसे गुस्से में खूब डांटा. वह कुछ देर तो चुपचाप खड़ा रहा फिर उसकी आँखों से टप टप आंसू गिरने लगे . उसके आंसू देखकर मेरा अध्यापिका का रौद्र स्वरूप कुछ मुलायम पड़ा . मैंने उसे पुचकारा और पूछा की वह क्यों नहीं आ रहा था . 
         कुछ क्षण बाद जब उसके आंसू थमे , तो वह बोला ,"मैडम , मेरे पिताजी को अस्पताल में ले जाना पड़ा . इसलिए नहीं आ सका ."
  "क्यों और कोई नहीं है घर में " मैंने पूछा 
" नहीं मैडम . मैं और मेरे पिता ; बस हम दो ही हैं "
" माँ कहाँ है ?" मैंने पूछा 
" जी , वे नहीं हैं . भगवान् के पास चली गई "
"ओह !" मुझे बहुत दु:ख हुआ जानकर की राहुल की माँ नहीं है .
"अब पिताजी कैसे हैं ?"
"अब पिताजी ठीक है . मैं उन्हें घर पर ले आया हूँ "
"तुम्हारे घर का भी कुछ अता पता नहीं . यहाँ तक की किसी बच्चे ने तुम्हारा घर ही नहीं देखा . रोज़ लेट आते हो . क्या चक्कर है ?"
मुंह नीचा करके बहुत ही मंद स्वर में वह बोला ," मेरे पिताजी को सांस की बीमारी है . इसलिए वे ज्यादा रिक्शा नहीं चला पाते. बहुत कम आमदनी होती है. इसीलिए मैं सवेरे सवेरे कारें साफ़ करके कुछ रूपये कमा लेता हूँ .  इस कारण ही अक्सर लेट हो जाता हूँ . परन्तु मैडम मैं किसी बच्चे को अपने घर की गरीबी दिखाना नहीं चाहता . इसलिए किसी बच्चे को भी आज तक अपना घर नहीं दिखाया ." वह चुप हो गया था .
 मैं भी चुप थी . कितना बोझिल है , इस बच्चे का बचपन !
थोड़ी देर बाद मैंने कहा ," बेटा शाबाश ! तुम पर गर्व है मुझे . परन्तु ये सब बातें पहले ही बता देनी चाहिए थी ."
वह चुप खड़ा रहा .
मैंने फिर कहा ,"तुम बहुत अच्छे और बहादुर बच्चे हो . पढाई  में पूरा मन लगाओ . कभी भी किसी चीज़ की आवश्यकता हो तो मुझसे कहना, झिझकना नहीं ."
यह सुनकर उसके मुंह पर फीकी सी मुस्कान आ गई . उसने कहा ,"मैडम !  मेरा नाम मत काटिएगा. मैं कल से विद्यालय में आ जाऊंगा ."
" बिलकुल भी नहीं बेटे ! तुम्हारा नाम कैसे काट सकती हूँ ? तुम कल से नियमित रूप से आना शुरू करो . पिछला काम पूरा करने के लिए एक बच्चे की कापी दिलवा दूंगी .   

उसे वापिस जाते हुए मैं देखती रही . सोच रही थी ; बचपन पर कितना अधिक बोझ है !

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