Thursday, January 26, 2012

संक्षिप्त गीता !

बचपन से माँ को काम करते समय, हमेशा मैंने कोई न कोई भजन, गुनगुनाते पाया है . काम करते-करते माँ अक्सर यह गीता पाठ किया करती थी. अब भी कभी कभी गाती हैं . यह आसनसोल में मामी के पास रहते हुए उन्होंने कहीं से पढ़ा और इसे कंठस्थ कर लिया. इसमें श्रीकृष्ण और अर्जुन ; दोनों के संवाद निहित हैं :-


" कायरपने से हो गया सब नष्ट सत्य स्वभाव है 
मोहित हुई मति ने भुलाया धर्म का भी भाव है 
आया शरण मैं आपकी हूँ शिष्य , शिक्षा दीजिए
निश्चित कहो, कल्याणकारी कर्म क्या, मेरे लिए? "

"नि:शौच्य का कर शौच कहता, बात प्रज्ञावाद की 
जीते मरे की विज्ञजन, चिंता नहीं करते कभी 
मेरा लगाता ध्यान , कहता ॐ अक्षर ब्रह्म ही 
तन त्याग जाता जीव जो , पाता परम गति है वही 
जो जन मुझे भजते सदैव , अनन्य भावापन्न हो 
उनका स्वयं मैं ही चलाता , योगक्षेम प्रसन्न हो "

"भगवन ! पुरातन पुरुष हो तुम , विश्व के आधार हो 
हो आदि दैव, तथैव उत्तम धाम अपरम्पार हो 
ज्ञाता तुम्ही हो जानने के योग्य भी भगवन्त हो 
संसार में व्यापे हुए हो , देव! देव अनंत हो 
तुम वायु , यम, पावक, वरुण एवं तुम्ही राकेश हो 
ब्रह्मा तथा उनके पिता भी आप ही अखिलेश हो 
हे देव देव प्रणाम देव प्रणाम सहसों बार हो 
फिर फिर प्रणाम प्रणाम नाथ प्रणाम बारम्बार हो 
सानन्द सन्मुख और पीछे से प्रणाम सुरेश हो 
हरि बार बार प्रणाम चारों ओर से सर्वेश हो 
हे वीर्य , शौर्य अनन्त बलधारी , अतुल बलवंत हो 
व्यापे हुए सब में , इसी से सर्व, हे भगवंत हो 
तुमको समझ अपना सखा , जाने बिना महिमा महा 
यादव सखा हे कृष्ण ! प्यार ,प्रमाद या हठ से कहा
हे हरि हंसाने के लिए आहार और विहार में 
सोते अकेले जागते सबमें किसी व्यवहार में 
सबकी क्षमा मैं मांगता , जो कुछ हुआ अपराध हो 
संसार में तुम अतुल , अपरम्पार और अगाध हो 
सारे चराचर के पिता हो, आप जग आधार हो 
हरि ! आप गुरुओं के गुरू . अति पूज्य अपरम्पार हो 
त्रेलौक्य में तुमसा प्रभु ! कोई कहीं भी है नहीं 
अनुपम , अतुल्य, प्रभाव बढकर , कौन फिर होगा कहीं ?
इस हेतु वंदन योग्य ईश! शरीर चरणों में किये 
मैं आपको करता प्रणाम , प्रसन्न करने के लिए 
ज्यों तात सुत के , प्रिय प्रिया के मित्र , सहचर अर्थ हैं 
अपराध मेरा आप त्यों ही, सहन हेतु समर्थ हैं"

"तज धर्म सारे एक मेरी ही शरण को प्राप्त हो 
मैं मुक्त पापों से करुँगा, तू न चिंता व्याप्त हो 
हे पार्थ! मन की कामना जब छोड़ता है जन सभी 
हो आप आपे में मगन , दृढप्रज्ञ होता है तभी 
सुख में न चाह, न खेद जो दु:ख में , कभी अनुभव करे 
थिर बुद्धि वह मुनि;   राग एवं क्रोध, भय से जो परे
शुभ या अशुभ , जो भी मिले , उसमें न हर्ष , न शोक हो 
नि:संदेह जो सर्वत्र है , थिर बुद्धि ही उसको कहो 
हे पार्थ ! ज्यों कछुआ समेटे अंग चारों छोर से 
थिर बुद्धि मन,  यों इन्द्रियां सिमटें विषय की ओर से 
होते विषय सब दूर हैं , आहार जब जन त्यागता 
रस किन्तु रहता , ब्रह्म को कर प्राप्त , वह भी भागता 
कौन्तेय ! करते यत्न, इन्द्रियदमन हित, विद्वान हैं 
मन किन्तु , बल से खींच लेती , इन्द्रियां बलवान हैं . 
उन इन्द्रियों को मार बैठे योगयुत मत्पर हुआ 
आधीन जिसके इन्द्रियां ; दृढप्रज्ञ वह नित नर हुआ 
चिंतन विषय का संग , विषयों में बढ़ाता है तभी 
फिर संग से हो कामना , फिर कामना से क्रोध भी 
फिर क्रोध से है मोह , सुधि को मोह करता भ्रष्ट है 
यह सुधि गए फिर बुद्धि विनशे, बुद्धि विनशे नष्ट है 
पाकर प्रसाद , पवित्र जन के दु:ख कट जाते सभी 
जब चित्त, नित्य प्रसन्न रहता , बुद्धि दृढ होती तभी 
सब ओर से परिपूर्ण जलनिधि में सलिल, जैसे सदा 
आकर समाता ;  किन्तु अविचल, सिन्धु रहता सर्वदा 
इस भांति ही जिसमें विषय जाकर समा जाते सभी 
वह शान्ति पाता है; न पाता काम , कामी जन कभी
अभ्यास पथ से ज्ञान उत्तम , ज्ञान से गुरु ध्यान है 
गुरु ध्यान से फल त्याग करता , त्याग शान्ति प्रदान है 
दृष्टा व अनुमन्ता सदा भक्ता प्रभोक्ता शिव महा 
इस देह में परमात्मा उस पर पुरुष को है कहाँ?"

"तुम परम ब्रह्म, पवित्र एवं परम धाम, अनूप हो
 हो आदि देव अनंत, अविनाशी, अनन्त स्वरूप हो." 


"हरि सम जग कछु वस्तु नहीं , प्रेम पन्थ सम पन्थ !
सद्गुरु सम सज्जन नहीं , गीता सम नहीं ग्रन्थ  !! "    






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