Monday, February 13, 2012

जब मैंने चोरी की !

दादी की तेरहवीं थी . मैं चतुर्थ कक्षा की छात्रा थी . घर में पगड़ी की रस्म चल रही थी . हम बच्चे घर में बहुत बोर हो रहे थे . हमारी तरफ किसी का विशेष ध्यान भी नहीं था . मेरे ताऊजी की बेटी कान्ता ने सुझाव दिया कि घर से बाहर जाकर कुछ देर घूम आते हैं . वह मुझसे डेढ़ साल बड़ी थी और पंचम कक्षा की छात्रा थी . मुझे उसकी बात पसंद आई . हम घर से बाहर जाकर इधर उधर घूमते रहे .
                                                       कुछ देर बाद कुछ खाने का मन किया . कान्ता को शरारत सूझी . बोली ," सामने हलवाई की दुकान है . उसकी बड़ी परात में नमकपारे रखे हैं . तू नीचे खडी होकर चुपके से नमकपारे ले आ . किसी को भी पता नहीं चलेगा ." मुझे भी यह बात अच्छी लगी . किसी को पता नहीं चलेगा और नमकपारे भी खाने को मिलेंगे . लेकिन डर लग रहा था . मैंने कहा," कोई पकड़ लेगा तो कितना बुरा लगेगा . चल घर वापिस चलते हैं ."   कान्ता ने हौसला बढाते हुए कहा ," मैं तेरे पास ही तो रहूँगी . कोई देखेगा तो तुझे बता दूंगी . तू चुस्ती से नमकपारे उठा कर, फटाफट मुझे पकड़ा दियो ."
                                                                          यह काम रोमांच से परिपूर्ण था . कान्ता तो साथ थी ही . मुझे भी पूरा जोश आ गया . लपककर मैं , नमकपारे की परात के नीचे वाले, ऊंचे से बड़े पत्थर पर चढ़ गई और फटाफट एक तरफ के नमकपारे मुट्ठी में उठाये दूर तक दौड़ गई . कान्ता मेरे पीछे-पीछे भागी भागी आई . वह बहुत खुश थी . मेरे हाथ से आधे नमकपारे उसने लिए . हम दोनों ने खूब मज़े लेकर नमकपारे खाए .
              कान्ता ने कहा ," ये तो बड़ी मजेदार बात है . पैसे भी नहीं देने पड़े ; और मुफ्त में चीज़ भी खा ली . किसी को कुछ पता भी नहीं चला . "  मैं भी बड़ी खुश थी .   "हाँ कान्ता ! मज़ा तो बहुत आया ." मैंने कहा .
  कान्ता ने सामने देखा .फलवाले की दुकान में  एक बड़े से झाबे में बड़े बड़े संतरे रखे थे . रसीले संतरे देखकर कान्ता के मुंह में पानी आ गया . वह बोली ," देख कितने सुन्दर और रसीले संतरे हैं . एक भी मिल जाए तो मज़ा आ जायेगा ." मुझे ये बात कुछ खास पसंद नहीं आई . मैंने कहा ," नहीं कान्ता ! हम संतरे नहीं चुरायेंगे ."      कान्ता मुझे समझाने लगी ," यह चोरी थोड़े ही है . हम तो बच्चे हैं . बच्चे कोई एक चीज़ ले भी लें तो कोई बुरा नहीं मानता . तू तो छोटी सी है . चुपके से एक संतरा ले आ . संतरे वाला तुझे देख भी लेगा , तो बच्चा समझ कर छोड़ देगा . जा जल्दी से उठा ले ."  मुझे लगा कि नमकपारे उठाते समय भी तो किसी ने नहीं देखा था . कोई खास ध्यान तो देता नहीं है . चलो, एक संतरा उठा ही लिया जाए .
                      कान्ता वहीं खडी रही . मैं चुपके से आगे बढी और एक संतरा उठाया ही था; कि झटाक से एक भारी हाथ, मेरे छोटे से हाथ पर पड़ा और संतरेवाले ने मुझसे संतरा छीन लिया . उसने गुस्से में एक जोर का करारा थप्पड़ मेरे गाल पर रसीद कर दिया . वह साथ में कहे जा रहा था कि अपने छोटे छोटे बच्चों को, लोग चोर बना देते हैं . शर्म भी नहीं आती .
                मुझे बहुत बुरा लगा . कान्ता वहीं खडी रही . मेरे पास आने पर वह चुपचाप मेरे साथ साथ चलने लगी . मेरा गाल तो लाल था ही आँख भी लाल हो गयी थी . जब हम घर पहुंचे तो सभी मेहमान जा चुके थे . माँ ने मेरे लाल गाल और लाल आँख देखी तो वे बड़ी परेशान हुई . वे मुझे अन्दर कमरे में ले गई . वहाँ मेरे बड़े भाई भी बैठे थे . माँ ने वहाँ ले जाकर पूछा ,"क्या हुआ ? आँख और गाल लाल कैसे हो गए ?"
           मैं चुप खडी रही . कान्ता पीछे खडी थी . वह बोली ," ये संतरा चुरा रही थी . संतरे वाले ने इसकी पिटाई कर दी ."
 मैंने कान्ता को देखा . मुझे बहुत गुस्सा आया उस पर ! लेकिन वह कह तो सच ही रही थी . मैं नीचे, जमीन की ओर देखने लगी . भाई और माँ के सामने आँख उठाने की हिम्मत बिलकुल नहीं हो रही थी .
                                                                                      माँ ने कान्ता को बाहर भेज दिया . उसके बाद गुस्से से डांटते हुए बोली ," बता , चोरी किसने सिखाई तुझे ?"  भाई भी मेरे पीछे पड़ गए बोले , " किससे सीखा चोरी करना ? बता किससे सीखा ?"   वे झकझोरते हुए मुझसे पूछते जा रहे थे . मैं बहुत परेशान थी कि किसका नाम लूं . मुझे तो पता ही नहीं था कि किससे चोरी सीखी . मैंने तो कांता के कहने पर और अपनी मर्जी से ही यह सब किया था . नाम लूं तो किसका ? मैंने सोचा कि कैसे पीछा छुडाऊँ ? एक तरकीब सूझी; कि झूठमूठ बता देती हूँ कि किससे सीखी चोरी, तो पीछा छूट जाएगा . मैंने कहा," मैंने एक आदमी से चोरी करना सीखा ."  माँ और भाई यह सुनकर बड़े हैरान और परेशान हुए . उन्होंने उस समय मुझे समझाया कि चोरी करना गलत बात है . बहुत अपमान की बात है . अच्छे घरों के बच्चे चोरी नहीं करते . जो चीज़ लेनी है , वह पैसे देकर ही लेनी चाहिए .
                                                               मैंने उनसे वायदा किया कि ऐसा ही करूंगी . तब जाकर मेरा पीछा छूटा . वैसे सबक तो मैं संतरेवाले से ही सीख गई थी . मैंने मन ही मन यह भी निश्चय कर लिया था कि कान्ता जैसे धोखेबाजों से बचकर रहूँगी .

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