Tuesday, April 24, 2012

मेरे प्रोफेसर !

भाई ऊपर वाले कमरे में शेव बना रहे थे ; उन्हें ज़ल्दी तैयार होकर दूल्हा जो बनना था ! मैं उन्हें चाय पकडाने के लिए ऊपर पहुंची ही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई . माँ ने दरवाज़ा खोला . मैं ऊपर से देख रही थी . दरवाज़े पर मेरे अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर खड़े थे और मेरे बारे में पूछ रहे थे . में हतप्रभ सी देखती ही रह गई !
                    मैंने अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर साहब को भाई के विवाह का निमंत्रण पत्र देकर उन्हें बड़े आग्रहपूर्वक भाई के विवाह में आने का न्यौता अवश्य दिया था . मुझे इस बात का भी पूरा भान था कि कक्षा की उनकी सबसे चहेती शिष्या में ही थी . लेकिन वे सचमुच विवाह में सम्मिलित होंगे ;  ऐसा विचार कल्पनातीत था .
            " देख ! तेरे प्रोफ़ेसर आये हैं ." माँ की आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटी . भाई को चाय पकड़ाकर , लपककर में नीचे गई . मैंने उन्हें नमस्कार किया और घर के सभी मेहमानों से उनका परिचय कराने लगी . मेरे बड़े ताउजी के बेटे भी बारात में जाने के लिए निमंत्रित थे . वे भी बैठक में ही बैठे थे . जैसे ही मैं उन दोनों का परिचय करने के लिए बढी ; वे दोनों पूर्व परिचित की मुद्रा में नजर आने लगे . मेरे अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर आगे बढकर मेरे ताउजी के बेटे को नमस्कार कर रहे थे और वे प्रसन्न मुद्रा में उनका अभिवादन स्वीकार कर रहे थे .
                         मैंने अपने प्रोफ़ेसर साहब को नमस्कार किया और उनका परिचय अपने ताउजी के बेटे से करने लगी , " सर! ये रमेश भाईसाहब है ; दिल्ली विश्वविद्यालय ..........." 
                        मैं अपना वाक्य पूरा भी न करने पाई थी कि मेरे ताउजी के बेटे बोल उठे ," अरे भई, ये हमारे ही चेले हैं . आज तेरे प्रोफेसर हैं तो क्या हुआ ? पढ़ाया तो हमीं ने है ." ये कह कर रमेश भाईसाहब ठहाका लगा कर हंस पड़े . मेरे प्रोफेसर साहब भी मुस्कुरा रहे थे बोले , " अजीब इत्तेफाक है ; मैं तुम्हारा प्रोफेसर ,  और तुम्हारे भैया मेरे प्रोफेसर !" 
             आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता से मैं बोली ," सर ! ये बड़े संयोग की बात है . आप कृपया भैया के पास बैठें . मैं आपके लिए जलपान लाती हूँ . "
            मैंने उनके सामने जलपान रखा और फिर माँ के साथ काम में लग गई . भाई की बारात दो घंटे बाद ही रवाना होनी थी . काम बहुत थे , और समय कम था . मैंने सोचा प्रोफेसर साहब बारात में तो साथ ही जायेंगे . फिर उन्हें बातचीत करने के लिए रमेश भाईसाहब भी मिल गए हैं ; इसलिए उनके बोर होने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता . फिर मुझे तैयार भी होना था . मैं अन्दर कमरे में चली गई . 
                   पांच दस मिनट बाद ही प्रोफेसर साहब ने मुझे बुलवाया . वे भाई के विवाह के नाम का शगुन मेरे हाथ पर रखते हुए बोले ,"यह अपनी माताजी को दे देना . मैं चलता हूँ ."
                    मैं सकपका गई . मुझे बहुत अजीब सा लगा . मैंने कहा ," सर!  आप ऐसे कैसे जा सकते हैं ? भाई की बारात में तो साथ जाना ही है आपको ."
                 वे रुकने को तैयार नहीं थे ,  बोले ," अभी तो मुझे कोई काम है . बारात में नहीं जा सकूंगा . ठीक है ; मैं चलता हूँ . "  वे कहकर चल भी दिए और मैं अवाक् सी उन्हें जाते देखती रही .
                         मुझे ऐसा लगा कि शायद उनके स्वाभिमान को ठेस पहुंची . शायद उन्होंने सोचा कि अपने सबसे अच्छे विद्यार्थी के यहाँ समारोह में सम्मिलित होने का उनका फैसला गलत था . शायद उन्होंने सोचा कि मैंने उनका सम्मान नहीं किया . या फिर शायद वे अपने प्रोफेसर से झेंप रहे थे . 
                    कुछ क्षण तो मैं दरवाजे पर ही खडी रही . फिर मैंने सोचा कि सर से बाद में पूछ लूंगी कि कोई गलती तो नहीं हुई मुझसे ? मैं उनसे माफी मांग लूंगी .  ऐसा सोचकर मैंने शगुन के रूपये माँ को थमाए और तैयार होने में लग गई . 
                       विवाह के बाद जब लैक्चर रूम में उन्होंने लैक्चर दिया तो मुझे ऐसा लगा कि शायद वे मुझसे अनमने से हैं . मैंने सोचा तो था कि उनसे अपनी गलती पूछूंगी ; माफी मांग लूंगी ; आदि आदि ,  लेकिन साहस  न कर पाई . 
              आगले दिन मैं सर के लिए विवाह की मिठाई लेकर आई . मैंने कहा , " सर! माँ ने आपके लिए कुछ मिठाई भेजी है ; प्लीज़ ले लीजिये ." उन्होंने मुझे कुछ अजीब सी मुस्कुराहट देते हुए मिठाई ले ली . 
                         मैं उनसे कुछ भी पूछ पाने की हिम्मत न जुटा पाई . परन्तु अगर वे मुझसे नाराज़ हुए थे तो मुझे सचमुच इस बात का अफ़सोस है . आज अगर सर मुझे कहीं मिल जाएँ, तो मैं जरूर पूछ सकती हूँ कि वे मुझसे नाराज़ तो नहीं हैं ना ? क्यों सर ? आप पढ़ रहे हैं क्या ?  

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