Saturday, February 2, 2013

फिर बुलाइए ना !

                                                     बालकोनी में कपड़े सुखाते हुए जैसे ही इंदुजी ने मुझे देखा , वैसे ही तुरंत उन्होंने गैस पर चाय का पानी चढ़ा दिया । दरवाजे पर मेरे पहुंचने पर वे बहुत आत्मीयता से गले मिलीं । मन कितना हर्षित और तृप्त हुआ ; बताया नहीं जा सकता !
                                                         अमेरिका से उन्हें आए  कुछ दिन बीत चुके थे , लेकिन मिलना नहीं हो पाया था । "चलो धूप में बाहर बालकोनी में बैठते हैं ।" कहते हुए वे मेरे लिए मिष्ठान्न भी ले आई थीं ।  उनकी फुर्ती देखते बनती है । मैं सच कहती हूँ; मैं हो ही नहीं सकती इतनी अधिक फुर्तीली ! मसालेदार चाय की चुस्कियां लेते हुए हमारी गप्पबाज़ी होने लगी । आई पैड पर उनकी दक्षता देखकर मुझे बहुत हर्ष का अनुभव हुआ . "अब ये जरूर ब्लॉग लिखना शुरू कर सकती हैं ; बस इन्हें प्रेरित करते रहना पड़ेगा ।"  मैंने मन में सोचा ।
  " दोपहर के भोजन का समय हो गया है ; चलो खाना खाया जाए ।" उन्होंने पूछा तो मैंने सहर्ष सहमति जताई .
                          "गेहूँ की रोटी खाओगी , बाजरे की या मक्का की ?"
                                                                                  "वाह ! कितनी चॉइस है । इंदुजी का भी जवाब नहीं ।" मैंने सोचा । कोई औपचारिकता तो निभानी थी नहीं । मैंने कहा ," बाजरे की रोटी खानी है । सालों-साल  साल बीत गए, बाजरे की रोटी खाए !"
                                                        तुरंत बाजरे का आटा गूंधकर , इंदुजी ने मुझे दही में जीरा पावडर डालने का निर्देश दिया  और थाली में बेसन के चीले की सब्जी रख दी । एक सूखी सब्जी भी थी । अब रसोईघर में ही गर्मागर्म पतली पतली बाजरे की रोटियों  का लुत्फ़ मैं उठाने लगी । वाह ! क्या बाजरे की रोटियाँ थीं । पेट में ही नहीं वे तो सीधे आत्मा में उतर गईँ ! स्नेहसिक्त आटे में भावविभोर हृदय का प्रेम समा गया था । इंदुजी ने भी खाना खाते हुए  कहा , " इतनी स्वादिष्ट बाजरे की रोटी तो कभी कभी ही बन पाती हैं ।"
  इंदुजी ! मुझे दोबारा फिर आना पड़ेगा, आपके हाथ की बाजरे की रोटी खाने के लिए । तैयार हैं न आप ?


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