Thursday, November 13, 2014

अनेक बार, जीवनदान !

                                              बाऊजी ऑफिस जा चुके थे । माँ ने भाइयों को तैयार करके स्कूल भेज दिया । उन्हें बेचैनी सी महसूस हो रही थी । उन्होंने सोचा क्यों न बच्चों के वापिस आने से पहले पड़ौस की डिस्पेंसरी के डाक्टर से मुआयना करा लिया जाए । रास्ते में चलते चलते ही उन्हें प्रसव पीड़ा का अनुभव होने लगा । वे थोडी चुस्ती से डिस्पेंसरी की और कदम बढ़ाने लगी ।
                              डिस्पेंसरी में डाक्टर नही थी । एक नर्स मौजूद थी । नर्स midwife की तरह बहुत कुशल थी । उन्होंने माँ का मुआयना करके उन्हें बिस्तर पर लेटने के लिए कहा । नर्स को लगा कि अभी कुछ समय लगेगा । उसने दो मिनट में वापिस आने को कहा और पीछे  मुड़  कर  अपने कमरे की और बढ़ने लगी । एक मिनट भी नहीं बीता होगा कि माँ को मेरे जन्म अनुभव हुआ । माँ ने ज़ोर से आवाज़ लगाई । यह कुदरत का ही शायद करिश्मा था कि नर्स तुरंत पीछे मुड़कर भागी और उसने मुझे अपने हाथों में ओट लिया ! नर्स की चुस्ती फुर्ती से दो प्राणियों को जीवन दान मिल गया ।

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                                    माँ की बुआ एक बहुत बड़ी हवेली में रहती थीं । माँ उनके पासकुछ दिनों रहने के लिए गई थी । वहाँ पर हम सभी बच्चे खूब धमा चौकड़ी मचाते । कभी नीचे भागते ; कभी ऊपर । बड़े बच्चों के साथ टोली बनाकर इधर उधर घूमना बहुत अच्छा लगता था । मैं केवल चार वर्ष की थी । बहुत कुछ पता तो था नहीं ; केवल बड़े बच्चों की शरारत में सम्मिलित होने भर में ही मज़े आते थे । शाम को तीन चार बजे का वक्त था । हवेली की लगभग सभी स्त्रियॉं कमरों में सुस्ता रहीं थी । बच्चे कभी छत पर और कभी आँगन में चुहलबाज़ी कर रहे थे । उन्हें बड़ों से डाँट फटकार भी पड रही थी ; परन्तु वे कब मानने वाले थे । अचानक सभी बच्चो छत से नीचे झाँकने लगे । नीचे झाँकने के लिए जो दीवार थी वह बहुत ऊंची नहीं थी । मेरी ऊँचाई से आधी ऊँचाई की ही दीवार थी वह !
                                           सभी बच्चे पता नही नीचे क्या देखकर जोर जोर से हँस रहे थे । मैं भी नीचे झाँकने लगी । अधिक उत्सुकता हुई तो और थोड़ा झुक गई । तब भी कुछ पता न चला । जैसे ही और अधिक झुकी कि पैर ज़मीन से अधर हो गए ।  मैं नीचे आँगन में गिरने ही वाली थी की दीवार का एक मोटा कंगूरा मेरे हाथों में आ गया ।
                     अब आलम ये था कि मैं कंगूरे को कसकर पकडे हुए ऊपर की दीवार से आँगन की तरफ उल्टी लटकी हुई थी । सभी बच्चे भौचक होकर मुझे निहार रहे थे । मैंने अपने नन्हें हाथों पर पूरा ज़ोर डाला हुआ था की कंगूरा हाथों से छूट  न जाए । तभी एक  बड़े व्यक्ति ने ऊपर आकर मुझे पकड़ा और अपनी गोद  में उठा लिया ! वैसे मुझे लगता है की शायद वह कंगूरा मेरे हाथों से बस  छूटने ही वाला था परन्तु जीवन दान देने वाले के हाथ तो बहुत लम्बे होते हैं न !

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                                                                कार्तिक पूर्णिमा पर नदियों का स्नान बहुत पवित्र माना जाता है । हम सभी परिवार के सदस्य यमुना नदी पर स्नान के लिए सवेरे सवेरे पहुँच गए । सभी लोग अक्सर घाट के आसपास ही  स्नान कर लेते है  । थोड़ा सा अंदर की तरफ जाने पर रेत में पैर धसक जाने पर डूबने का खतरा होता है । केवल तैराक लोग ही किनारे से थोड़ा दूर जाने का साहस कर लेते हैं ।
                                      हम सभी किनारे पर ही स्नान कर रहे थे । तब मैं शायद केवल दस वर्ष की ही रही हूँगी ।   बाऊजी ने मेरा हाथ पकड़ा हुआ था । मैंने जैसे तैसे अपना हाथ छुड़ा लिया और थोड़ा अधिक पानी में जाने का प्रयत्न करने लगी । तभी पानी का एक बड़ा उछाल आया और मेरे पैर नीचे के रेत को छोड़ते हुए उखड़ने शुरू हो गए । बाऊजी शायद मेरी छोटी बहन को संभाल  रहे थे । वे मेरी ओर देख नहीं पाए । मुझे लगा की शायद मैं लहर केशक्तिशाली प्रवाह में बह ही जाऊँगी । पानी मेरे ठोड़ी  तक तो पहुंच ही रहा था; बस सिर तक चढ़ने ही वाला था ।  मैंने ज़ोर से पुकारा ,"बाऊजी !!" ।  बाउजी आवाज सुनते ही एकदम पीछे मुड़े और मुझे लपककर झटके से पकड़ लिया । दो पल के अंतर से डूबने से बचाव हो गया और एक बार फिर जीवन दान मिल गया ।

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                                                        सवेरे सवेरे मुझे सिर में दर्द हो रहा था । घर में सिर दर्द की दवा रखी हुई थी । किसी से भी सलाह लिए बिना मैंने खाली पेट सिरदर्द की दवा खा ली । इसके बाद मैं विद्यालय के लिए चल दी । प्रार्थना के पश्चात भौतिकी का कालांश था ।   भौतिकी विज्ञान की अध्यापिका मेज के एक तरफ खड़े होकर एक प्रयोग के विषय में  समझा रहीं थीं । सभी नवीं कक्षा की छात्राएँ मेज को घेरे बहुत ध्यान से उस प्रयोग को समझने में लगी हुईं थीं । तभी मुझे चक्कर से आने लगे और आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा । मैंने पास खड़ी छात्रा  को अवगत करना चाहा । वह कुछ समझती ; उससे पहले ही मैं लंबवत  पीछे की तरफ पक्के फर्श पर धड़ाम से गिरी । जोर की आवाज आई । मेरा सिर पीछे से फूट गया और खून की धारा  निकलने लगी । मैं बेहोश हो गई थी । मुझे लग रहा था कि मैं किसी स्टेशन पर लेटी हुई हूँ । मेरे चारों तरफ  लाल रोशनी है । कई लोग मुझे घेरे खड़े हैं । मेरी भौतिकी की अध्यापिका मुझसे पूछ रही हैं, " क्या हुआ ? "
                                                                तभी मुझे होश आया और मैंने देखा कि सभी छात्राएँ मेरे चारों तरफ खड़ी थी और मेरी भौतिकी की अध्यापिका बड़े प्यार से मुझसे मेरी कुशलता के बारे पूछ रहीं  थीं । विद्यालय की डॉक्टर ने मुझे तुरंत दवा लगाकर मेरी मरहम पट्टी की और मुझे घर भिजवा दिया । माँ तो मुझे देखते ही एकदम परेशान हो गई । सभी अड़ोसी पडोसी भी एकत्र हो गए । किसी ने कुछ सलाह दी किसी ने कुछ और । सभी तरह तरह की दवाइयाँ , जड़ी बूटियां और घरेलू नुस्खे बताने में लगे हुए थे । तभी एक अंकल मुझे पड़ोस के डॉक्टर के पास ले गए । उस डाक्टर ने जाँच करने के बाद कुछ दवाइयाँ दी और कुछ दिन आराम करने के लिए कहा । कुछ दिन आराम करने के बाद मैं पूर्णतया स्वस्थ हो गई । यह शायद मेरे लिए  एक और बार जीवन दान मिला था , नहीं तो इतनी ऊँचाई से सिर फूटने पर शायद कुछ विपरीत परिस्थिति भी हो सकती थी ।

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                                                          मैं कॉलेज जाने के लिए अपने कपड़े इस्त्री  रही थी । भाई बाहर आँगन में  खड़े हुए शेव बना रहे थे । अचानक प्रेस के तार और मुख्य बिजली के तार का जोड़ खुल गया । मैं भूल गई कि  बिजली का स्विच ऑन है । मैंने दोनों तार जोड़ने के चक्कर में उन्हें हाथ से पकड़ लिया । हाथ से पकड़ना था कि मेरा अँगूठा बिजली के तार से चिपक गया और मेरे अंदर करंट दौड़ने लगा । मैं अंगूठे से तार हटाने का भरसक प्रयत्न कर रही थी । लेकिन तार तो बुरी तरह से चिपक गया था ; उतर ही नहीं रहा था । मेरे मुंह से आवाज़ भी नहीं निकल पा रही थी ।
                                   अचानक भाई की नज़र मेरे ऊपर पड़ी । उन्होंने सब कुछ समझने में एक पल भी न लगाया । तुरंत उन्होंने main switch off कर दिया । जैसे ही करंट का प्रवाह खत्म हुआ , मेरे हाथ से बिजली का तार अलग हो गया । मेरे शरीर को अभी भी झटके महसूस हो रहे थे । कुछ देर तो मैं स्तब्ध सी रही लेकिन फिर धीरे धीरे सब सामान्य सा लगने लगा । मुझे नया जीवनदान मिला था ।

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                                                               मेरा बस स्टॉप आने की वाला था । सीट से उठकर मै दरवाजे की ओर गई । मेरे एक हाथ में एक बैग था और दूसरे हाथ से मैंने बस के बाहर की और जाने की तरफ के दरवाजे की साइड बार पकड़ी हुई थी । बस का ड्राइवर बाहर के दरवाजे के पास वाली अगली सीट पर बैठा था ।
                        अचानक ड्राइवर को तेज़ी से ब्रेक लगाना पड़ा । बस ने जोर का झटका खाया फिर भी कुछ दूर तक आहिस्ते से चलती रही । बस का झटका खाते ही मेरे हाथ से साइड बार एकदम छूट गया । मैं दरवाजे की सीढ़ियों की तरफ औंधी गिरी । मेरा बैग सड़क पर जा गिरा ।  मेरा सिर सड़क पर  घिसटने को ही था; कि कंडक्टर ने फुर्ती से मेरे दोनों पैर कस कर पकड़ लिए । मेरे सिर और सड़क का फासला केवल दो इंच भर ही रह गया होगा । कैसा अद्धुत जीवनदान मिला मुझे !









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