Wednesday, January 20, 2016

सूर्य की प्रतीक्षा

गरम नरम रिश्तों की धूप
ठंडी सी पड़ गई
ठंड में सिकुड़ते वार्तालाप
शब्दों में सिमट गए
मौन हो गई वाणी
मुँह में में ही घुलकर
फिसल जाती है ध्वनि
अल्हड़ से नाचते वर्ण
एक दूसरे में उलझकर
गुमसुम हो गए
फीके पड़ गए शोख़ रंग
पानी में डूबी ब्रश
कलाकृति भी बना चुकी
रंगों के अभाव ने
भावना को भुला दिया
अनदेखी कलाकृति की भाषा
मूक हो वीरान पड़ी है
प्रतीक्षा है एक सूर्य की
बादल चीरकर आने वाली
सुनहली लुभावनी धूप की
और जीवन में सुरम्य साहस भरते
सूरज के सतरंगी घोड़ों की
जो फीके रंगों को फिर से निखार दें
और मूक वाणी में स्वर भर दें